श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 21: मनु-कर्दम संवाद  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  3.21.28 
समाहितं ते हृदयं यत्रेमान् परिवत्सरान् ।
सा त्वां ब्रह्मन्नृपवधू: काममाशु भजिष्यति ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
समाहितम्—स्थिर; ते—तुम्हारे; हृदयम्—हृदय; यत्र—जिस पर; इमान्—इतने; परिवत्सरान्—वर्षों तक; सा—वह; त्वाम्—तुमको; ब्रह्मन्—हे ब्राह्मण; नृप-वधू:—राजकुमारी; कामम्—इच्छानुरूप; आशु—शीघ्र ही; भजिष्यति— सेवा करेगी ।.
 
अनुवाद
 
 हे ऋषि, वह राजकुमारी उसी प्रकार की होगी जिस प्रकार की तुम इतने वर्षों से अपने मन में सोचते रहे हो। वह शीघ्र ही तुम्हारी हो जाएगी और वह जी भर तुम्हारी सेवा करेगी।
 
तात्पर्य
 भगवान् भक्तों के मनोरथों को पूरा करने वाले हैं, अत: भगवान् ने कर्दम मुनि को बतलाया, “जो कन्या तुमसे विवाहित होने जा रही है, वह स्वायंभुव मनु की पुत्री और राजकुमारी है, अत: वह तुम्हारे योग्य है।” केवल ईश्वर की कृपा से किसी को मनवांछित पत्नी प्राप्त होती है; इसी प्रकार लडक़ी को भी ईश्वर की कृपा से मनानुकूल पति मिलता है। इस प्रकार यह कहा जाता है कि हम नित्यप्रति के कार्यों के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करते रहें तो हर काम सुचारु रूप से और हमारी रुचि के अनुकूल सम्पन्न होगा। दूसरे शब्दों में, सभी परिस्थितियों में हमें श्रीभगवान् की शरण में जाना चाहिए और उनके निर्णय पर पूर्णतया निर्भर रहना चाहिए। मनुष्य सोचता कुछ है और होता कुछ है। अत: इच्छाओं की पूर्ति श्रीभगवान् पर छोड़ देना सबसे उत्तम हल है। कर्दम मुनि को पत्नी की आकांक्षा थी, किन्तु भगवद्भक्त होने के कारण भगवान् ने उनके लिए सम्राट की पुत्री, राजुकमारी को चुन दिया। इस प्रकार कर्दम मुनि को अपनी आशा से बढक़र पत्नी-लाभ हुआ। यदि हम श्रीभगवान् की रुचि पर निर्भर करें तो हमारी आकांक्षा से भी अधिक, प्रचुर मात्रा में, वर प्राप्त हो सकते हैं।

यहाँ पर यह भी ध्यान देने की महत्त्वपूर्ण बात है कि कर्दम मुनि ब्राह्मण थे, जबकि सम्राट स्वायंभुव क्षत्रिय थे। अत: उस काल में भी अन्तर्जातीय विवाह प्रचलित था। प्रचलन यह था कि कोई ब्राह्मण क्षत्रिय की कन्या से विवाह कर सकता था, किन्तु क्षत्रिय किसी ब्राह्मण कन्या से विवाह नहीं कर सकता था। वैदिक काल के इतिहास से ऐसे प्रमाण प्राप्त हैं कि शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री महाराज ययाति को दी, किन्तु राजा ने ब्राह्मण-पुत्री से विवाह करने से इनकार कर दिया। केवल ब्राह्मण की विशेष आज्ञा से ही वे विवाह कर सकते थे। अत: प्राचीन काल में, लाखों वर्षों पूर्व अन्तर्जातीय विवाह वर्जित न था वरन् नियमित सामाजिक प्रथा के रूप में था।

 
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