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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 21: मनु-कर्दम संवाद  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  3.21.32 
सहाहं स्वांशकलया त्वद्वीर्येण महामुने ।
तव क्षेत्रे देवहूत्यां प्रणेष्ये तत्त्वसंहिताम् ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
सह—साथ; अहम्—मैं; स्व-अंश-कलया—अपने स्वांश से; त्वत्-वीर्येण—तुम्हारे वीर्य से; महा-मुने—हे ऋषि; तव क्षेत्रे—तुम्हारी पत्नी; देवहूत्याम्—देवहूति में; प्रणेष्ये—उपदेश दूँगा; तत्त्व—परम तत्त्वों का; संहिताम्—संहिता, शास्त्र ।.
 
अनुवाद
 
 हे ऋषि, मैं तुम्हारी नवों कन्याओं सहित तुम्हारी पत्नी देवहूति के माध्यम से अपने स्वांश को प्रकट करूँगा और उसे उस दर्शनशास्त्र (सांख्य दर्शन) का उपदेश दूँगा जो परम तत्त्वों या श्रेणियों से सम्बद्ध है।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर आगत शब्द स्वांश-कलया सूचित करता है कि भगवान् देवहूति तथा कर्दम के पुत्र कपिलदेव के रूप में प्रकट होंगे जो सांख्य दर्शन के पहले संस्थापक हैं जिसे यहाँ तत्त्व-संहिता कहा गया है। भगवान् ने कर्दम मुनि को पहले ही बता दिया कि वे कपिलदेव के रूप में अवतार लेंगे और सांख्य दर्शन का प्रचार करेंगे। भगवान् ने सांख्य की स्थापना की, यह उस सांख्य दर्शन से भिन्न है, जिसे एक अन्य कपिलदेव द्वारा स्थापित बताया जाता है। सांख्य दर्शन दो प्रकार का है एक तो ईश्वरविहीन सांख्य दर्शन और दूसरा ईश्वरमय सांख्य दर्शन। देवहूति के पुत्र कपिलदेव ने जिस सांख्य का प्रचार किया वह ईश्वरमय दर्शन है।

भगवान् का अनेक प्रकार से प्राकट्य होता है। वह एक है, किन्तु वह अनेक हो गया है। वह अपने को दो भिन्न विस्तारों में विभाजित कर लेता है ‘कला’ तथा ‘विभिन्नांश’। सामान्य जीवात्माएँ ‘विभिन्नांश’ विस्तार कहलाती हैं, किन्तु विष्णु-तत्त्व के अनन्त विस्तार यथा वामन, गोविन्द, नारायण, प्रद्युम्न, वासुदेव तथा अनन्त ‘स्वांश-कला’ कहलाते हैं। ‘स्वांश’ का अर्थ प्रत्यक्ष विस्तार है और ‘कला’ आदि भगवान् के विस्तार से विस्तार का द्योतक है। बलदेव श्रीकृष्ण के विस्तार हैं और बलदेव के अगले विस्तार संकर्षण हैं। इस प्रकार संकर्षण ‘कला’ हैं जबकि बलदेव ‘स्वांश’ हैं। किन्तु इनमें कोई अन्तर नहीं है। ब्रह्म-संहिता (५.४६) में इसकी बड़ी सुन्दर व्याख्या हुई है दीपार्चिरेव हि दशान्तरम् अभ्युपेत्य। एक दीपक से दूसरा और दूसरे से तीसरा इस प्रकार हजारों दीप जलाये जा सकते हैं, किन्तु प्रकाश फैलाने के मामले में इनमें से कोई किसी से घटकर नहीं है। प्रत्येक दीपक में पूर्ण प्रकाश क्षमता निहित है, किन्तु फिर भी इतना अन्तर तो है ही कि यह प्रथम दीप है, यह दूसरा या तीसरा और चौथा इत्यादि। इसी प्रकार भगवान् के स्वांश और कला में कोई अन्तर नहीं होता। चूँकि भगवान् परम पूर्ण हैं अत: भगवान् के नामों को ठीक उसी रुप में समझा जाता है और उनका नाम, रूप, लीलाएँ, सामग्रियाँ तथा उनके गुण इन सबों में एक सी शक्ति है। परम जगत में श्रीकृष्ण नाम भगवान् की दिव्य ध्वनि का प्रतीक है। उनके गुण, नाम, रूप इत्यादि में कोई संभाव्य (शक्य) अन्तर नहीं है। यदि हम हरे कृष्ण नाम का जप करते हैं, तो इसमें उतनी ही शक्ति रहती है जितनी कि स्वयं भगवान् में है। हम जिस रूप में भगवान् की पूजा करते हैं और मन्दिर में भगवान् का जो रूप होता है, उन दोनों में कोई संभाव्य अन्तर नहीं होता। मनुष्य को चाहिए कि वह यह न सोचे कि कोई भगवान् की मूर्ति या खिलौने की पूजा कर रहा है, भले ही दूसरे लोग उसे मूर्ति मानें। चूँकि इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है, अत: भगवान् की मूर्ति तथा स्वयं भगवान् की पूजा करने का फल समान मिलता है। यही कृष्णभावनामृत का विज्ञान है।

 
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