मैत्रेय उवाच
एवं तमनुभाष्याथ भगवान् प्रत्यगक्षज: ।
जगाम बिन्दुसरस: सरस्वत्या परिश्रितात् ॥ ३३ ॥
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय मुनि ने कहा; एवम्—इस प्रकार; तम्—उसको; अनुभाष्य—सम्भाषण करके; अथ—तब; भगवान्—भगवान्; प्रत्यक्—प्रत्यक्ष; अक्ष—इन्द्रियों से; ज:—जो देखा जाता है; जगाम—चला गया; बिन्दु सरस:—बिन्दु सरोवर से; सरस्वत्या—सरस्वती नदी से; परिश्रितात्—घिरा हुआ ।.
अनुवाद
मैत्रेय ने आगे कहा इस प्रकार कर्दम मुनि से बातें करने के बाद, इन्द्रियों के कृष्ण भावनामृत में लीन रहने पर प्रकट होने वाले भगवान् उस बिन्दु नामक सरोवर से, जो सरस्वती नदी के द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ था, अपने लोक को चले गये।
तात्पर्य
यहाँ पर भगवान् को प्रत्यग्-अक्षज कहा गया है। यद्यपि वे भौतिक इन्द्रियों से नहीं दिखाई पड़ते तो भी वे देखे जा सकते हैं; यह विरोधाभास लगता है। हमारे पास भौतिक इन्द्रियाँ ही हैं, तो फिर हम भगवान् को कैसे देखें? वे अधोक्षज कहलाते हैं, जिसका अर्थ है कि वे भौतिक इन्द्रियों से नहीं देखे जा सकते। अक्षज का अर्थ है, “भौतिक इन्द्रियों द्वारा दृश्य ज्ञान।” चूँकि भगवान् हमारी इन्द्रियों की कल्पनाशक्ति से नहीं देखे जा सकते, अत: वे अजित भी कहलाते हैं, वे तो जीत सकते हैं, किन्तु उन्हें कोई नहीं जीत पाएगा। तो फिर यह क्या कि इतने पर भी वे देखे जा सकते हैं? यह व्याख्या की जाती है कि श्रीकृष्ण के दिव्य नाम को न तो कोई सुन सकता है, न उनके दिव्य रूप को कोई समझ सकता है और न उनकी दिव्य लीलाओं को कोई आत्मसात् कर सकता है। यह सम्भव नहीं है। तो यह कैसे सम्भव है कि वे देखे या समझे जा सकते हैं? जब मनुष्य भक्तिमय सेवा में प्रशिक्षित होता है और भगवान् की सेवा करता रहता है, तो उसकी इन्द्रियाँ क्रमश: भौतिक कल्मष से परि-शुद्ध हो जाती हैं। जब इस प्रकार इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं तभी मनुष्य उन्हें देख सकता है, समझ सकता है, सुन सकता है। यहाँ पर प्रयुक्त एक ही शब्द प्रत्यग्-अक्षज में भौतिक इन्द्रियों की शुद्धता तथा श्रीकृष्ण के दिव्य रूप, गुण, नाम का बोध समाए हुए हैं।
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