श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 21: मनु-कर्दम संवाद  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  3.21.4 
तस्यां स वै महायोगी युक्तायां योगलक्षणै: ।
ससर्ज कतिधा वीर्यं तन्मे शुश्रूषवे वद ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
तस्याम्—उसमें; स:—कर्दम मुनि; वै—निस्सन्देह; महा-योगी—परम योगी; युक्तायाम्—युक्त; योग-लक्षणै:— योगिक सिद्धि के आठ लक्षणों से; ससर्ज—आगे बढ़ाया; कतिधा—कितनी बार; वीर्यम्—सन्तान; तत्—वह आख्यान; मे—मुझको; शुश्रूषवे—सुनने का इच्छुक; वद—कहिये ।.
 
अनुवाद
 
 उस महायोगी ने, जिसे अष्टांग योग के सिद्धान्तों में सिद्धि प्राप्त थी, इस राजकुमारी से कितनी सन्तानें उत्पन्न कीं? कृपा करके आप मुझे यह बताएँ, क्योंकि मैं इसे सुनने का इच्छुक हूँ।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर विदुर ने कर्दम मुनि तथा उनकी पत्नी देवहूति तथा उनकी सन्तति के विषय में जिज्ञासा की है। यहाँ यह बताया गया है कि देवहूति अष्टांग योग में परम निपुण थीं। योग- क्रिया के आठ अंग इस प्रकार हैं—(१) इन्द्रिय निग्रह, (२) विधि विधानों का कठोर पालन, (३) विभिन्न आसनों का अभ्यास, (४) श्वास का नियन्त्रण, (५) विषयों पर से इन्द्रियों को हटाना (६) मन की एकाग्रता, (७) ध्यान तथा (८) आत्म-साक्षात्कार। आत्म-साक्षात्कार के पश्चात् भी आठ और सिद्धि-अवस्थाएँ होती हैं, जिन्हें योग सिद्धियाँ कहते हैं। पति-पत्नी दोनों योगाभ्यास में सिद्ध थे; पति महायोगी था और और पत्नी योगलक्षण थी। उन दोनों ने सम्भोग द्वारा सन्तति उत्पन्न की। पुराकाल में, ऋषि तथा मुनि अपने जीवन को पूर्ण बनाने के पश्चात् ही सन्तान उत्पन्न करते थे अन्यथा वे ब्रह्मचर्य व्रत धारण करते थे। आत्म-साक्षात्कार तथा योग की सिद्धि के लिए ब्रह्मचर्य परमावश्यक है। वैदिक धर्मग्रंथों में कहीं भी यह संस्तुत नहीं किया गया कि अपनी इच्छा के अनुसार जैसा भी चाहे कोई इन्द्रिय-तृप्ति के लिए भोग करे और किसी दुष्ट को कुछ धन देकर महान् ध्यानी बन जाए।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥