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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 21: मनु-कर्दम संवाद  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  3.21.40 
पुण्यद्रुमलताजालै: कूजत्पुण्यमृगद्विजै: ।
सर्वर्तुफलपुष्पाढ्यं वनराजिश्रियान्वितम् ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
पुण्य—पवित्र; द्रुम—वृक्षों का; लता—बेलों के; जालै:—समूहों से; कूजत्—बोलते हुए; पुण्य—पवित्र; मृग— पशु; द्विजै:—पक्षियों के द्वारा; सर्व—समस्त; ऋतु—ऋतुओं में; फल—फलों से; पुष्प—फूलों से; आढ्यम्—सम्पन्न; वन-राजि—वृक्षों के कुंजों की; श्रिया—सुन्दरता से; अन्वितम्—सुशोभित ।.
 
अनुवाद
 
 सरोवर के तट पवित्र वृक्षों तथा लताओं के समूहों से घिरे थे, जो सभी ऋतुओं में फलों तथा फूलों से लदे रहते थे और जिनमें पवित्र पशु तथा पक्षी अपना-अपना बसेरा बनाते थे और विविध प्रकार से कूजन करते थे। यह स्थान वृक्षों के कुंजों की शोभा से विभूषित था।
 
तात्पर्य
 यह बताया गया है कि बिन्दु सरोवर पवित्र वृक्षों तथा पक्षियों से घिरा रहता था। जिस प्रकार मानव समाज में कुछ पुण्यात्मा तथा कुछ पापी लोग होते हैं उसी प्रकार वृक्षों तथा पक्षियों में भी कुछ पवित्र थे और कुछ अपवित्र। जिन वृक्षों में अच्छे फल या फूल नहीं लगते वे अपवित्र माने जाते हैं और जो पक्षी शैतान होते हैं, जैसे कौवे, वे अपवित्र माने जाते हैं। बिन्दु सरोवर के चारों ओर की भूमि में एक भी अपवित्र पक्षी या वृक्ष नहीं था। प्रत्येक वृक्ष फलित तथा पुष्पित था और प्रत्येक पक्षी प्रभु के गुणों का हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे; हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे का गान करने वाला था।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥