श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 21: मनु-कर्दम संवाद  »  श्लोक 44
 
 
श्लोक  3.21.44 
तथैव हरिणै: क्रोडै: श्‍वाविद्गवयकुञ्जरै: ।
गोपुच्छैर्हरिभिर्मर्कैर्नकुलैर्नाभिभिर्वृतम् ॥ ४४ ॥
 
शब्दार्थ
तथा एव—उसी प्रकार; हरिणै:—हिरनों से; क्रोडै:—सुअरों से; श्वावित्—साही; गवय—नील गाय; कुञ्जरै:— हाथियों से; गोपुच्छै:—लंगूरों से; हरिभि:—सिंहों से; मर्कै:—बन्दरों से; नकुलै:—नेवलों से; नाभिभि:—कस्तूरी मृग से; वृतम्—घिरा हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 इसके तटों पर हिरन, सूकर, साही, नीलगाय, हाथी, लंगूर, शेर, बन्दर, नेवला तथा कस्तूरी मृगों की बहुलता थी।
 
तात्पर्य
 कस्तूरी मृग सभी स्थानों पर नहीं मिलता, वह केवल बिन्दु-सरोवर जैसे स्थानों में ही पाया जाता है। ये अपनी नाभि में निकलती कसूरी की गन्ध से सैदव उन्मत्त रहते हैं। गवय अर्थात् नीलगायों की पूँछ में बालों का गुच्छा होता है। इन बाल के गुच्छों को मन्दिरों में पूजा के लिए मूर्तियों पर पंखा झलने के काम में लाया जाता है। कभी-कभी गवय को चमरी भी कहा जाता है, वे अत्यन्त पवित्र मानी जाती हैं। आज भी भारत में अनेक बनजारे हैं, जो कस्तूरी तथा चमरी के बालों का व्यापार करते हैं। उच्च श्रेणी के हिन्दुओं में इनकी अत्यधिक माँग है और आज भी भारत के बड़े-बड़े शहरों तथा ग्रावों में यह व्यापार चलता है।
 
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