नूनं चङ्क्रमणं देव सतां संरक्षणाय ते ।
वधाय चासतां यस्त्वं हरे: शक्तिर्हि पालिनी ॥ ५० ॥
शब्दार्थ
नूनम्—निश्चय ही; चङ्क्रमणम्—यात्रा; देव—हे भगवान्; सताम्—सज्जनों की; संरक्षणाय—रक्षा के लिए; ते— तुम्हारा; वधाय—मारने के लिए; च—तथा; असताम्—असुरों को; य:—जो पुरुष; त्वम्—तुम; हरे:—श्रीभगवान् की; शक्ति:—शक्ति; हि—चूँकि; पालिनी—रक्षा करते हुए ।.
अनुवाद
हे भगवान्, आपका यह भ्रमण (यात्रा) निश्चित रूप से सज्जनों की रक्षा तथा असुरों के वध के उद्देश्य से सम्पन्न हुआ है, क्योंकि आप श्री हरि की रक्षक-शक्ति से समन्वित हैं।
तात्पर्य
वैदिक साहित्य से, विशेषत: श्रीमद्भागवत तथा पुराणों जैसे इतिहास ग्रंथों से यह प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में पवित्र राजा पवित्र नागरिकों को रक्षा प्रदान करने और अपिवत्र लोगों को दण्ड देने या मारने के लिए अपने राज्य का भ्रमण करते थे। कभी-कभी वे आखेट विद्या का अभ्यास करने के उद्देश्य से जंगलों में पशुओं को मारने जाते थे, क्योंकि बिना ऐसे अभ्यास के वे अवांछित तत्त्वों का वध करने में समर्थ नहीं हो पाते थे। क्षत्रियों को इस प्रकार से हिंसा करने की छूट होती थी, क्योंकि अच्छे कार्य के लिए हिंसा करना उनके धर्म का अंग होता था। यहाँ पर दो शब्दों का स्पष्ट उल्लेख है—वधाय अर्थात् मारने के प्रयोजनार्थ तथा असताम्—अर्थात् अवांछित (दुष्ट) जनों को। राजा की रज्ञक-शक्ति भगवान् की शक्ति मानी जाती है। भगवद्गीता (४.८) में भगवान् कहते हैं—परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्। भगवान् पुण्यात्माओं की रक्षा करने और असुरों के वध के लिए अवतरित होते हैं। अत: पुण्यात्माओं को शरण देने और दुष्टों या असुरों को वध करने के लिए परमेश्वर से सीधे शक्ति प्राप्त होती है और यह शक्ति राजा या राज्य के मुख्य कार्यकर्ता में निहित होती है। इस युग में ऐसा राज्याध्यक्ष पाना दुर्लभ है, जो दुष्टों को मारने में पटु हो। आधुनिक राज्याध्यक्ष सुन्दर प्रासादों के भीतर बैठे-बैठे निर्दोष व्यक्तियों को अकारण मारने का प्रयत्न करते हैं।
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