श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 21: मनु-कर्दम संवाद  »  श्लोक 52-54
 
 
श्लोक  3.21.52-54 
न यदा रथमास्थाय जैत्रं मणिगणार्पितम् ।
विस्फूर्जच्चण्डकोदण्डो रथेन त्रासयन्नघान् ॥ ५२ ॥
स्वसैन्यचरणक्षुण्णं वेपयन्मण्डलं भुव: ।
विकर्षन् बृहतीं सेनां पर्यटस्यंशुमानिव ॥ ५३ ॥
तदैव सेतव: सर्वे वर्णाश्रमनिबन्धना: ।
भगवद्रचिता राजन् भिद्येरन् बत दस्युभि: ॥ ५४ ॥
 
शब्दार्थ
न—नहीं; यदा—जब; रथम्—रथ; आस्थाय—चढक़र; जैत्रम्—विजयी; मणि—मणियों के; गण—समूह सहित; अर्पितम्—सज्जित; विस्फूर्जत्—टंकार करते; चण्ड—घोर शब्द; कोदण्ड:—धनुष; रथेन—ऐसा रथ होने से; त्रासयन्—डराते हुए; अघान्—समस्त अपराधियों को; स्व-सैन्य—अपने सैनिकों के; चरण—पाँव से; क्षुण्णम्— मर्दित, कुचला; वेपयन्—हिलाते हुए; मण्डलम्—गोलक; भुव:—पृथ्वी का; विकर्षन्—पथ प्रदर्शन करते; बृहतीम्—विशाल; सेनाम्—सेना; पर्यटसि—घूम रहा हो; अंशुमान्—चमकीले सूर्य; इव—सदृश; तदा—तब; एव—निश्चय ही; सेतव:—धार्मिक आचार संहिता; सर्वे—सभी; वर्ण—वर्णों (जातियों) की; आश्रम—आश्रमों की; निबन्धना:—मर्यादा, बन्धन; भगवत्—भगवान् के द्वारा; रचिता:—उत्पन्न; राजन्—हे राजा; भिद्येरन्—तोड़ डाले जाऐंगे; बत—हाय; दस्युभि:—बदमाशों के द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 यदि आप अपने विजयी रत्नजटित रथ पर जिसकी उपस्थिति मात्र से अपराधी भयभीत हो उठते हैं सवार न हों, यदि आप अपने धनुष की प्रचंड टंकार न करें और यदि आप तेजवान सूर्य की भाँति संसार भर में एक विशाल सेना लेकर विचरण न करें जिसके पदाघात से पृथ्वी मंडल हिलने लगती है, तो स्वंय भगवान् द्वारा बनाई गई समस्त वर्णों तथा आश्रमों की व्यवस्था चोरों तथा डाकुओं द्वारा छिन्न-भिन्न हो जाय।
 
तात्पर्य
 उत्तरदायी राजा का धर्म है कि वह मानव समाज की सामाजिक तथा आध्यात्मिक व्यवस्थाओं की रक्षा करे। आध्यात्मिक व्यवस्था चार आश्रमों में बँटी है— ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास जबकि सामाजिक व्यवस्था कर्म तथा गुण के अनुसार ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों से निर्मित है। भगवद्गीता में कर्म तथा गुण के अनुसार इस सामाजिक व्यवस्था (विभाग) का वर्णन हुआ है। दुर्भाग्यवश उत्तरदायी राजाओं द्वारा समुचित संरक्षण न दिये जाने के कारण सामाजिक तथा आध्यात्मिक आश्रम पद्धति वंशानुगत जाति प्रथा बन चुकी है। किन्तु यह वास्तविक पद्धति नहीं है। मानव समाज का अभिप्राय ऐसे समाज से होता है, जो आत्मबोध की दिशा में अग्रसर हो। सर्वाधिक उन्नत समाज आर्यों का था। आर्य का अर्थ ही है, जो उन्नति शीत हैं। अत: प्रश्न है कि कौन सा समाज उन्नति पर अग्रसर है? उन्नति का अर्थ वृथा ही भौतिक आवश्यकताओं को उत्पन्न करना और तथाकथित भौतिक सुखों की सारे विश्व में वृद्धि करके मानव शक्ति को अपव्यय करना नहीं है। वास्तविक उन्नति तो आत्मबोध की दिशा में प्रगति है और जिस समुदाय में इस उद्देश्य से कार्य हुआ वह आर्य सभ्यता कहलाई। इसमें बुद्धिमान पुरुष अर्थात् ब्राह्मण अध्यात्मिक कार्यों में लगे रहते थे, उदाहरणार्थ कर्दम मुनि सम्राट स्वायंभुव जैसे क्षत्रिय देश का शासन चलाते और आत्मबोध के लिए सभी साधन सुचारू रूप से जुटाते थे। राजा का धर्म है कि वह देश भर में घूम-घूम कर देखे कि राज्य-व्यवस्था ठीक है। वर्णों तथा आश्रमों पर आधारित भारतीय सभ्यता का ह्रास हो गया है, क्योंकि वह विदेशियों पर या जो वर्णाश्रम की सभ्यता का पालन नहीं करते थे उन पर निर्भर रहने लगी। इस प्रकार वर्णाश्रम पद्धति का अब जाति प्रथा में ह्रास हो चुका है।

यहाँ पर चारों वर्णों तथा आश्रमों की संस्था की पुष्टि भगवत् रचित कहकर की गई है, जिसका अर्थ है “श्रीभगवान् द्वारा बनाई गई।” भगवद्गीता में भी इसकी पुष्टि हुई है— चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टम्। भगवान् कहते हैं कि चारों वर्ण तथा चारों आश्रम मेरे द्वारा बनाए गए हैं। भगवान् द्वारा सृष्ट कोई भी वस्तु न तो छिपाई जा सकती है और न समाप्त की जा सकती है। वर्णों तथा आश्रमों का विभाग चलता रहेगा चाहे वह अपने मूल रूप में हो या बिगड़े रूप में, किन्तु श्रीभगवान् द्वारा सृष्ट होने से उनको समाप्त नहीं किया जा सकता। वे भगवान् की सृष्टि होने के कारण सूर्य की भाँति बनी रहेंगी। चाहे मेघों आच्छादित हो या निर्मल आकाश में हो, तो सूर्य तो बना ही रहेगा इस प्रकार जब वर्णाश्रम पद्धति का ह्रास हो जाता है, तो यह वंशानुगत जाति प्रथा प्रतीत होने लगती है, किन्तु प्रत्येक समाज में बुद्धिमान, वीर, व्यापारी तथा श्रमिक वर्ग होता है। जब वैदिक नियमों के अनुसार विभिन्न जातियों को सहयोग के लिए नियमित कर लिया जाता है, तो शान्ति और आध्यात्मिक प्रगति होती है। किन्तु जब जाति प्रथा में घृणा, अविश्वास तथा कुरीतियाँ घर कर जाती हैं, तो पूरी पद्धति का ह्रास होने लगता है और अत्यन्त शोचनीय अवस्था उत्पन्न हो जाती, जिसका यहाँ पर उल्लेख हुआ है। सम्प्रति, सारा विश्व शोचनीय स्थिति को प्राप्त है, क्योंकि नाना प्रकार के स्वार्थ समाये हैं। वर्णाश्रम के चारों वर्गों के ह्रास से ऐसा हुआ है।

 
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