अधर्म:—अधर्म, अनाचार; च—तथा; समेधेत—उन्नति करेगा; लोलुपै:—धन के लालची; व्यङ्कुशै:—अनियन्त्रित; नृभि:—मनुष्यों द्वारा; शयाने त्वयि—तुम्हारे लेट जाने पर; लोक:—संसार; अयम्—यह; दस्यु—दुराचारियों के द्वारा; ग्रस्त:—आक्रमण किये जाने पर; विनङ्क्ष्यति—विनष्ट हो जाएगा ।.
अनुवाद
यदि आप संसार की स्थिति के विषय में सोचना छोड़ दें (निश्चिन्त हो जायँ) तो अधर्म बढ़ेगा, क्योंकि धनलोलुप व्यक्ति निर्द्वन्द्व हो जाएँगे। ऐसे दुराचारियों के आक्रमणों से यह संसार विनष्ट हो जाएगा।
तात्पर्य
चूँकि वर्णों तथा आश्रमों के वैज्ञानिक विभाजन का लोप हो रहा है, अत: पूरा विश्व ऐसे अवांछित लोगों से शासित हो रहा है, जो धर्म, राजनीति या समाज-व्यवस्था में तनिक भी शिक्षित नहीं हैं, फलत: यह अत्यन्त शोचनीय स्थिति में है। चारों वर्णों तथा चारों आश्रमों में विभिन्न वर्ग के लोगों के लिए नियमित प्रशिक्षण सिद्धान्त होते हैं। जिस प्रकार आधुनिक युग में इंजीनियरों, डाक्टरों तथा विद्युतविदों की आवश्यकता पड़ती है और वे विभिन्न वैज्ञानिक संस्थानों में भली भाँति प्रशिक्षित होते हैं उसी प्रकार प्राचीन काल में उच्च सामाजिक वर्णों को, यथा बुद्धिमान वर्ग (ब्राह्मण), शासक वर्ग (क्षत्रिय), वणिक वर्ग (वैश्य) को समुचित प्रशिक्षण मिलता था। भगवद्गीता में ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों के कार्यों का उल्लेख है। जब ऐसी शिक्षा नहीं दी जाती तो मनुष्य दावा करता है कि चूँकि वह ब्राह्मण या क्षत्रिय कुल में उत्पन्न है इसलिए वह ब्राह्मण या क्षत्रिय है, भले ही वह शूद्रों का सा कार्य क्यों न करता हो। इस प्रकार उच्चजाति का होने का अनुचित दावा वैज्ञानिक सामाजिक व्यवस्था को जाति प्रथा में लाकर पटक देता है, जिससे मूल पद्धति का ह्रास हो जाता है। इस प्रकार इस समय समाज में दुर्व्यवस्था है और उसमें न शान्ति है, न सम्पन्नता। यहाँ यह स्पष्ट उल्लेख है कि जब तक बलशाली राजा जागरूक नहीं रहता तब तक अपवित्र तथा अयोग्य व्यक्ति समाज में अमुक पद का दावा करते रहेंगे और सामाजिक व्यवस्था को विनष्ट कर देंगे।
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