श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 21: मनु-कर्दम संवाद  »  श्लोक 56
 
 
श्लोक  3.21.56 
अथापि पृच्छे त्वां वीर यदर्थं त्वमिहागत: ।
तद्वयं निर्व्यलीकेन प्रतिपद्यामहे हृदा ॥ ५६ ॥
 
शब्दार्थ
अथ अपि—इतने पर भी; पृच्छे—मैं पूछता हूँ; त्वाम्—तुमसे; वीर—हे पराक्रमी राजा; यत्-अर्थम्—प्रयोजन; त्वम्—तुम; इह—यहाँ; आगत:—आये हो; तत्—वह; वयम्—हम सब; निर्व्यलीकेन—बिना हिचक के; प्रतिपद्यामहे—पूरा करेंगे; हृदा—हृदय से ।.
 
अनुवाद
 
 तो भी, हे पराक्रमी राजा, मैं आपसे यहाँ आने का कारण पूछ रहा हूँ। वह चाहे जो भी हो, हम बिना हिचक के उसको पूरा करेंगे।
 
तात्पर्य
 जब कोई अतिथि अपने मित्र के घर जाता है, तो यह माना जाता है कि उसका कुछ विशेष प्रयोजन है। कर्दम मुनि समझ गये कि स्वायंभुव जैसा महान् राजा, यद्यपि अपने साम्राज्य की स्थिति का निरीक्षण करने के उद्देश्य से निकला था, किन्तु कुटिया में उसका आना किसी विशेष प्रयोजन से हो सकता है। इस प्रकार वे राजा की इच्छा पूरी करने के लिए सन्नद्ध थे। प्राचीन काल में यह प्रथा थी कि मुनिगण राजा के यहाँ जाते थे और राजागण मुनियों की कुटियों में जाया करते थे। प्रत्येक को एक दूसरे के प्रयोजन को पूरा करने में प्रसन्नता होती थी। यह पारस्परिक आदान-प्रदान भक्ति कार्य कहलाता है। ब्राह्मण तथा क्षत्रिय के अन्योन्य सम्बन्ध को बताने वाला एक सुन्दर श्लोक है (क्षत्रं द्विजत्वम्)। क्षत्रम् का अर्थ है ‘राजसी जाति’, द्विजत्वम् का अर्थ ‘ब्राह्मण जाति’। ये दोनों पारस्परिक हित के लिए थे। राजसी जाति समाज में ब्राह्मणों को आध्यात्मिक उन्नति के अनुशीलन के लिए सुरक्षा प्रदान करती थी और ब्राह्मण लोग राजसी जाति को बहुमूल्य शिक्षा प्रदान करते थे कि किस प्रकार राज्य तथा नागरिकों को आत्मसिद्धि के पद तक उठाया जाय।
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कंध के अन्तर्गत “मनु-कर्दम संवाद” नामक इक्कसीवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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