श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 22: कर्दममुनि तथा देवहूति का परिणय  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  3.22.12 
उद्यतस्य हि कामस्य प्रतिवादो न शस्यते ।
अपि निर्मुक्तसङ्गस्य कामरक्तस्य किं पुन: ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
उद्यतस्य—स्वयं प्राप्त; हि—निस्सन्देह; कामस्य—भौतिक इच्छा का; प्रतिवाद:—निरादर; न—नहीं; शस्यते— प्रशंसनीय; अपि—यद्यपि; निर्मुक्त—स्वतन्त्र; सङ्गस्य—आसक्ति का; काम—इन्द्रिय-सुख के प्रति; रक्तस्य—आसक्त का; किम् पुन:—क्या कहना है ।.
 
अनुवाद
 
 स्वत: प्राप्त होने वाली भेंट का निरादर नितान्त विरक्त पुरुष के लिए भी प्रशंसनीय नहीं है, फिर विषयासक्त के लिए तो कहना ही क्या है।
 
तात्पर्य
 भौतिक जीवन में प्रत्येक व्यक्ति इन्द्रियों की तृप्ति चाहता है, अत: यदि किसी को बिना प्रयास के ही इन्द्रिय-तृप्ति हो रही हो तो उसे अस्वीकार नहीं करना चाहिए। कर्दम मुनि इन्द्रिय-तृप्ति के लिए नहीं बने थे तो भी वे विवाह करना चाहते थे और उन्होंने उपयुक्त पत्नी के लिए भगवान् से प्रार्थना की थी। यह स्वायंभुव मनु को ज्ञात था। उन्होंने कर्दम मुनि को परोक्ष रूप में यह आश्वस्त किया, “आपको मेरी पुत्री जैसी पत्नी चाहिए और वह आपके समक्ष है। आपको अपनी प्रार्थना की पूर्ति के को अस्वीकार नहीं करना चाहिए; मेरी पुत्री को स्वीकार करना चाहिए।”
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥