श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 22: कर्दममुनि तथा देवहूति का परिणय  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  3.22.14 
अहं त्वाश‍ृणवं विद्वन् विवाहार्थं समुद्यतम् ।
अतस्त्वमुपकुर्वाण: प्रत्तां प्रतिगृहाण मे ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
अहम्—मैंने; त्वा—तुमको; अशृणवम्—सुना; विद्वन्—हे बुद्धिमान पुरुष; विवाह-अर्थम्—विवाह हेतु; समुद्यतम्— तैयार; अत:—अतएव; त्वम्—तुम; उपकुर्वाण:—आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत न लेने के कारण; प्रत्ताम्—भेंट किया गया; प्रतिगृहाण—कृपया स्वीकार कीजिये; मे—मेरा ।.
 
अनुवाद
 
 स्वायंभुव मनु ने कहा—हे विद्वान, मैंने सुना है कि आप ब्याह के इच्छुक हैं। कृपया मेरे द्वारा दान में दी जाने वाली (अर्पित) कन्या को स्वीकार करें, क्योंकि आपने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत नहीं ले रखा है।
 
तात्पर्य
 कुँवारा रहना ब्रह्मचर्य का सिद्धान्त है। ब्रह्मचारी दो प्रकार के होते हैं—एक तो नैष्ठिक-ब्रह्मचारी, जो आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किये रहता है और दूसरा उपकुर्वाण ब्रह्मचारी जो एक निश्चित आयु तक ब्रह्मचारी रहता है। उदाहरणार्थ, कोई पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचारी रह कर अपने गुरु की आज्ञा से विवाहित जीवन में प्रवेश कर सकता है। ब्रह्मचर्य विद्यार्थी जीवन है और आध्यात्मिक आश्रम में प्रवेश का शुभारम्भ है। केवल गृहस्थ ही इन्द्रिय-तुष्टि या विषय-भोग में लिप्त रह सकता है, ब्रह्मचारी नहीं। स्वायंभुव मनु ने कर्दम मुनि से अपनी कन्या को स्वीकार करने के लिए इसीलिए प्रार्थना की, क्योंकि कर्दम ने नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का व्रत नहीं ले रखा था। वे विवाह करने के इच्छुक थे और उन्हें राजपरिवार की योग्य कन्या मिल रही थी।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥