आमन्त्र्य—जाने की अनुमति लेकर; तम्—उससे; मुनि-वरम्—मुनियों में श्रेष्ठ, कर्दम से; अनुज्ञात:—जाने की अनुमति पाकर; सह-अनुग:—अपने सेवकों सहित; प्रतस्थे—प्रस्थान किया; रथम् आरुह्य—रथ में चढक़र; स भार्य:—अपनी पत्नी के साथ; स्व-पुरम्—अपनी राजधानी को; नृप:—राजा; उभयो:—दोनों पर; ऋषि- कुल्याया:—ऋषियों को स्वीकार्य; सरस्वत्या:—सरस्वती नदी का; सु-रोधसो:—सुहावने किनारे; ऋषीणाम्— ऋषियों का; उपशान्तानाम्—शान्त; पश्यन्—देखते हुए; आश्रम-सम्पद:—सुन्दर आश्रम की समृद्धि ।.
अनुवाद
तब महर्षि से आज्ञा लेते हुए और उनकी अनुमति पाकर राजा अपनी पत्नी के साथ रथ में सवार हुआ और अपने सेवकों सहित अपनी राजधानी के लिए चल पड़ा। रास्ते भर वे साधु पुरुषों के लिए अनुकूल सरस्वती नदी के दोनों ओर सुहावने तटों पर उनके शान्त एवं सुन्दर आश्रमों की समृद्धि को देखते रहे।
तात्पर्य
आधुनिक युग में जिस प्रकार बड़ी-बड़ी इंजीनियरी और वास्तुकला के कौशल से नगरों का निर्माण किया जाता है उसी प्रकार प्राचीनकाल में ऋषिकुल होते थे जहाँ साधु सदृश व्यक्ति रहा करते थे। आज भी भारत में दिव्य ज्ञान के अनेक भव्य स्थान हैं, अनेक ऋषि तथा साधु पुरुष आत्म-अनुशीलन के लिए गंगा तथा यमुना के तट पर सुन्दर कुटियों में रहते हैं। राजा अपने दल समेत इन ऋषिकुलों से होकर जाते समय कुटियों तथा आश्रमों की शोभा से बहुत प्रमुदित हुआ करते थे। यहाँ पर पश्यन्न-आश्रम-सम्पद: कहा गया है। ऋषियों के पास उच्च प्रासाद न थे, किन्तु उनके आश्रम इतने सुन्दर थे कि राजा उन्हें देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुए।
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