श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 22: कर्दममुनि तथा देवहूति का परिणय  »  श्लोक 29-30
 
 
श्लोक  3.22.29-30 
बर्हिष्मती नाम पुरी सर्वसम्पत्समन्विता ।
न्यपतन् यत्र रोमाणि यज्ञस्याङ्गं विधुन्वत: ॥ २९ ॥
कुशा: काशास्त एवासन् शश्वद्धरितवर्चस: ।
ऋषयो यै: पराभाव्य यज्ञघ्नान् यज्ञमीजिरे ॥ ३० ॥
 
शब्दार्थ
बर्हिष्मती—बर्हिष्मती; नाम—नामक; पुरी—नगरी; सर्व-सम्पत्—सभी प्रकार की सम्पदा; समन्विता—से पूर्ण; न्यपतन्—गिर पड़े; यत्र—जहाँ; रोमाणि—बाल (रोएँ); यज्ञस्य—भगवान् शूकर के; अङ्गम्—शरीर; विधुन्वत:— हिलाने पर; कुशा:—कुश (एक घास); काशा:—काँस (एक घास); ते—वे; एव—निश्चय ही; आसन्—हो गया; शश्वत्-हरित—सदाबहार का; वर्चस:—रंग का; ऋषय:—ऋषिगण; यै:—जिससे; पराभाव्य—हराकर; यज्ञ घ्नान्—यज्ञ में बाधक; यज्ञम्—भगवान् विष्णु; ईजिरे—उन्होंने पूजा की ।.
 
अनुवाद
 
 सभी प्रकार की सम्पदा में धनी बर्हिष्मती नगरी का यह नाम इसलिए पड़ा, क्योंकि जब भगवान् ने अपने आपको वराह रूप में प्रकट किया, तो भगवान् विष्णु का बाल (रोम) उनके शरीर से नीचे गिर पड़ा। जब उन्होंने अपना शरीर हिलाया तो जो बाल नीचे गिरा वह सदैव हरे भरे रहने वाले उन कुश तथा काँस में बदल गया जिनके द्वारा ऋषियों ने भगवान् विष्णु की तब पूजा की थी जब उन्होंने यज्ञों को सम्पन्न करने में बाधा डालने वाले असुरों को हराया था।
 
तात्पर्य
 परमेश्वर से सीधे सम्बद्ध कोई भी स्थान पीठ-स्थान कहलाता है। स्वायंभुव मनु की राजधानी बर्हिष्मती इसलिए महान् न थी कि उस नगरी में प्रचुर धन तथा ऐश्वर्य था, वरन् इसलिए कि उसी स्थान पर भगवान् वराह के बाल गिरे थे। ये ही बाल बाद में हरी घास के रूप में उग आये और ऋषिगण इस घास से भगवान् की उस समय पूजा करते थे जब उन्होंने हिरण्याक्ष असुर का वध किया था। यज्ञ का अर्थ है, भगवान् विष्णु। भगवद्गीता में कर्म को यज्ञार्थ कहा गया है। यज्ञार्थ कर्म का अर्थ है “विष्णु को प्रसन्न करने के लिए किया गया कार्य।” यदि कोई कार्य इन्द्रिय-तृप्ति या अन्य उद्देश्य से किया जाता है, तो यह काम करने वाले पर बन्धन होगा। यदि कोई कर्म-बन्धन से मुक्त होना चाहता है, तो उसे विष्णु या यज्ञ को प्रसन्न करने के लिए ही प्रत्येक कार्य करना चाहिए। स्वायंभुव मनु की राजधानी बर्हिष्मती में ये विशेष उत्सव ऋषियों तथा साधुओं द्वारा सम्पन्न किये जा रहे थे।
 
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