श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 22: कर्दममुनि तथा देवहूति का परिणय  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  3.22.3 
तत्‍त्राणायासृजच्चास्मान् दो:सहस्रात्सहस्रपात् ।
हृदयं तस्य हि ब्रह्म क्षत्रमङ्गं प्रचक्षते ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
तत्-त्राणाय—ब्राह्मणों की रक्षा के लिए; असृजत्—उत्पन्न किया; च—तथा; अस्मान्—हमको (क्षत्रिय); दो: सहस्रात्—उनका हजार भुजाओं से; सहस्र-पात्—हजार पाँव वाले परम पुरुष (विराट रूप); हृदयम्—हृदय; तस्य—उसका; हि—अत:; ब्रह्म—ब्राह्मण; क्षत्रम्—क्षत्रिय; अङ्गम्—भुजाएँ; प्रचक्षते—कहे जाते हैं ।.
 
अनुवाद
 
 ब्राह्मणों की रक्षा के लिए सहस्र-पाद विराट पुरुष ने हम क्षत्रियों को अपनी सहस्र भुजाओं से उत्पन्न किया। अत: ब्राह्मणों को उनका हृदय और क्षत्रियों को उनकी भुजाएँ कहते हैं।
 
तात्पर्य
 क्षत्रिय विशेषतया ब्राह्मणों की सुरक्षा के निमित्त हैं, क्योंकि यदि ब्राह्मण सुरक्षित रहेंगे तो सभ्यता के मस्तिष्क की रक्षा होती है। ब्राह्मणों को सामाजिक शरीर का मस्तिष्क माना जाता है। यदि मस्तिष्क विमल रहे और पगलाये नहीं तो सब कुछ ठीक रहता है। भगवान् का वर्णन इस प्रकार हुआ है—नमो ब्रह्मण्य-देवाय गो-ब्राह्मण हिताय च। इस स्तुति का सारांश यह है कि भगवान् ब्राह्मणों तथा गायों की विशेष रक्षा करते हैं और तब समाज के अन्य समस्त सदस्यों (जगद्-धिताय) की। उनकी इच्छा है कि गो तथा ब्राह्मणों की रक्षा पर ही विश्व का कल्याण निर्भर है। इस प्रकार ब्राह्मण-संस्कृति तथा गो-रक्षा ये दोनों मानव सभ्यता के मूल सिद्धान्त हैं। क्षत्रिय ब्राह्मणों की रक्षा के निमित्त होते हैं जैसाकि भगवान् की इच्छा है—गो-ब्राह्मण हिताय च। जिस प्रकार शरीर के भीतर हृदय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग है उसी प्रकार से ब्राह्मण मानव-समाज के महत्त्वपूर्ण अवयव हैं। क्षत्रिय सम्पूर्ण शरीर के समान हैं। जिस प्रकार हृदय की तुलना में शरीर भारी अवश्य होता है, किन्तु महत्त्वपूर्ण हृदय ही होता है।
 
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