श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 22: कर्दममुनि तथा देवहूति का परिणय  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  3.22.31 
कुशकाशमयं बर्हिरास्तीर्य भगवान्मनु: ।
अयजद्यज्ञपुरुषं लब्धा स्थानं यतो भुवम् ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
कुश—कुश की; काश—तथा काँस की; मयम्—निर्मित; बर्हि:—आसनी; आस्तीर्य—फैलाकर; भगवान्—अत्यन्त भाग्यशाली; मनु:—स्वायंभुव मनु ने; अयजत्—पूजा की; यज्ञ-पुरुषम्—भगवान् विष्णु; लब्धा—प्राप्त किया; स्थानम्—वास, धाम; यत:—जिससे; भुवम्—पृथ्वी ।.
 
अनुवाद
 
 मनु ने कुश तथा काँस की बनी आसनी बिछाई और श्रीभगवान् की अर्चना की जिनकी कृपा से उन्हें पृथ्वी मंडल का राज्य प्राप्त हुआ था।
 
तात्पर्य
 मनु मनुष्यजाति के पिता हैं, अत: मनु शब्द से ही मनुष्य बना है। जिनके पास प्रचुर सम्पत्ति है और अच्छे पद पर हैं उन्हें मनु से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए जो अपने राज्य तथा वैभव को श्रीभगवान् की देन समझ कर सदैव भक्ति में तल्लीन रहते थे। इसी प्रकार से मनु की सन्तान अर्थात् मनुष्यों को विशेषकर उच्चपदों पर आसीन लोगों को समझना चाहिए कि समस्त ऐश्वर्य श्रीभगवान् द्वारा प्रदत्त है। उन्हें इस ऐश्वर्य का सदुपयोग यज्ञ सम्पन्न करके भगवान् को प्रसन्न करने में करना चाहिए। धन तथा ऐश्वर्य के सदुपयोग की यही विधि है। भगवान् की कृपा के बिना किसी को धन, ऐश्वर्य, उत्तम जन्म, सुन्दर शरीर या अच्छी शिक्षा प्राप्त नहीं होती। अत: जिन्हें ये सुविधाएँ प्राप्त हैं उन्हें चाहिए कि वे भगवान् की पूजा करते हुए उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करें और जो उन्हें प्राप्त है उसे भगवान् को समर्पित करें। जब किसी परिवार, राष्ट्र या समाज द्वारा इस प्रकार की कृतज्ञता व्यक्त की जाती है, तो उनके वास स्थान वैकुण्ठ से समान हो जाते हैं और वे इस संसार में व्याप्त तीनों तापों से मुक्त रहते हैं। आधुनिक युग में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रधानता ज्ञापित करने के लिए ही कृष्णभावनामृत का ध्येय सबके लिए रखा गया है। जिसके पास जो कुछ है उसे भगवान् के अनुग्रह से प्राप्त दान समझना चाहिए। अत: प्रत्येक प्राणी को चाहिए कि कृष्णभावनामृत के माध्यम से भक्तिमय सेवा में लगे। कोई भी, चाहे वह गृहस्थ हो या नागरिक या मानव समाज का सदस्य, यदि सुखी रहना चाहता है, तो उसे भगवान् की प्रसन्नता के लिए भक्ति करनी चाहिए।
 
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