फलत: धीरे-धीरे उनके जीवन का अन्त-समय आ पहुँचा आया; किन्तु उनका दीर्घ जीवन, जो मन्वन्तर कल्प से युक्त है, व्यर्थ नहीं गया क्योंकि वे सदैव भगवान् की लीलाओं के श्रवण, चिन्तन, लेखन तथा कीर्तन में व्यस्त रहे।
तात्पर्य
तुरन्त का तैयार भोजन अत्यन्त स्वादिष्ट होता है, किन्तु यदि उसे तीन-चार घंटे बाद खाया जाय तो वह बासी और स्वाद हीन हो जाता है, अत: जब तक जीवन में ताजगी है तब तक भौतिक सुख है किन्तु जीवन के अन्त समय प्रत्येक वस्तु नीरस, व्यर्थ तथा कष्टकारक लगती है। किन्तु सम्राट स्वायंभुव मनु का जीवन नीरस नहीं था; वृद्ध होने पर भी उसमें प्रारम्भिक जीवन की सी ताजगी थी क्योंकि वे निरन्तर कृष्णभावनाभावित बने रहे। कृष्णभक्ति में रहने वाले मनुष्य का जीवन सदैव ताजा बना रहता है। कहा जाता है कि सूर्य प्रात:काल उदय होता है, सायंकाल अस्त होता है और उसका कार्य प्रत्येक प्राणी के जीवन की अवधि को घटाना है। किन्तु जो प्राणी कृष्णभक्ति में रत है उसके जीवन को सूर्योदय तथा सायंकाल घटा नहीं पाते। स्वायंभुव मनु का जीवन कुछ काल बाद नीरस इसीलिए नहीं हुआ, क्योंकि वे निरन्तर भगवान् विष्णु का जप तथा ध्यान करते रहे। वे महानतम् योगी थे, क्योंकि अपना समय नष्ट नहीं करते थे। यहाँ विशेष रूप से उल्लेख हुआ है कि विष्णो: कुर्वतो ब्रुवत: कथा:। जब वे कुछ बोलते तो भगवान् के विषय में और जब भी कुछ सुनते तो भगवान् के विषय में और जब भी ध्यान धरते तो श्रीकृष्ण और उनके कार्यकलापों के सम्बन्ध में।
कहा गया है कि उसकी आयु अत्यन्त दीर्घ अर्थात् एकहत्तर युग थी। एक युग ४३ लाख २० हजार वर्षों के तुल्य है। ऐसे एकहत्तर युग मनु की आयु थी। ब्रह्मा के एक दिन में ऐसे चौदह मनु आते-जाते हैं। इस प्रकार अपने पूरे जीवनकाल—४३,२०,००० × ७१ वर्ष—में मनु कृष्ण का कीर्तन, श्रवण, कथन तथा ध्यान धरते रहे। अत: उनका जीवन न तो व्यर्थ गया और न कभी नीरस लगा।
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