श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 22: कर्दममुनि तथा देवहूति का परिणय  »  श्लोक 36
 
 
श्लोक  3.22.36 
स एवं स्वान्तरं निन्ये युगानामेकसप्ततिम् ।
वासुदेवप्रसङ्गेन परिभूतगतित्रय: ॥ ३६ ॥
 
शब्दार्थ
स:—उसने (स्वायंभुव मनु ने); एवम्—इस प्रकार; स्व-अन्तरम्—अपना काल (जीवन); निन्ये—बिताया; युगानाम्—चार युगों के चक्रों का; एक-सप्ततिम्—एकहत्तर; वासुदेव—वासुदेव से; प्रसङ्गेन—सम्बद्ध कथाओं से; परिभूत—पार कर गया; गति-त्रय:—तीनों लक्ष्य (अवस्थाएँ) ।.
 
अनुवाद
 
 उन्होंने निरन्तर वासुदेव का ध्यान करते और उन्हीं का गुणानुवाद करते इकहत्तर चतुर्युग (७१ × ४३,२०,००० वर्ष) पूरे किये। इस प्रकार उन्होंने तीनों लक्ष्यों को पार कर लिया।
 
तात्पर्य
 तीन लक्ष्य उन व्यक्तियों के लिए हैं, जो प्रकृति के तीन गुणों से बँधे हैं। इन लक्ष्यों को कभी-कभी जागृत, स्वप्न तथा तुरीय अवस्थाएँ कहा जाता है। भगवद्गीता में ये तीन लक्ष्य सतो, रजो तथा तमो—इन तीन गुणों के रूप में वर्णित हैं। गीता में कहा गया है कि सतोगुण वाले लोग स्वर्गलोक जाते हैं, रजोगुण वाले इसी पृथ्वीलोक या उच्चतर लोकों में रहते हैं और तमोगुणी लोग उन लोकों में पशु जीवन बिताते जहाँ मनुष्य जीवन से निम्नतर जीवन होता है। किन्तु जो कृष्णभक्त है, वह इन तीन गुणों से परे होता है। भगवद्गीता में कहा गया है कि जो कोई भगवान् की भक्ति करता है, वह प्रकृति के तीन लक्ष्यों को स्वत: पार कर लेता है और ब्रह्मभूत हो जाता है अर्थात् उसे आत्म-साक्षात्कार हो जाता है (मुक्त हो जाता है)।

यद्यपि इस भौतिक संसार के शासक स्वायंभुव मनु भौतिक सुख में निमग्न प्रतीत होते थे, किन्तु वे न तो सत्त्व गुण में अथवा न ही रजो गुण अथवा तमोगुण अवस्था में हो, वरन् दिव्य अवस्था को प्राप्त थे।

अत: जो कोई भक्तिमय सेवा में लगा रहता है, वह सदैव मुक्त रहता है। भगवान् के परम भक्त बिल्व मंगल ठाकुर ने कहा है, “यदि श्रीकृष्ण के चरणकमल में मेरी एकनिष्ठ भक्ति है, तो माता मुक्ति सदैव मेरी सेवा के लिए तत्पर रहेगी। भौतिक सुख, धर्म तथा अर्थ की पूर्ण सिद्धि मेरे वश में है।” सभी लोग धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के फेर में रहते हैं। सामान्यत: वे कोई धार्मिक कृत्य इसलिए करते हैं जिससे कुछ भौतिक लाभ हो और कर्म इसलिए करते हैं जिससे इन्द्रिय-तृप्ति हो सके। सांसारिक इन्द्रिय-तृप्ति से उब कर मनुष्य मुक्त होना चाहता है और परम सत्य से तादात्म्य चाहता है। अल्पज्ञानियों के लिए ये चातुष्टय-दिव्य पथ का निर्माण करते हैं, किन्तु जो ज्ञानी हैं, वे इन चतुष्टयों की परवाह न करते हुए अपने आपको कृष्णभक्ति में लगाते हैं। वे तुरन्त ही उस दिव्य पद को प्राप्त होते हैं, जो मुक्ति से बड़ा है। भक्त के लिए मुक्ति कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। भक्तगण धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की तनिक भी परवाह नहीं करते। वे सदैव आत्म-साक्षात्कार की ब्रह्म-भूत अवस्था पर आसीन रहते हैं, जो दिव्य पद है।

 
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