श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 22: कर्दममुनि तथा देवहूति का परिणय  »  श्लोक 37
 
 
श्लोक  3.22.37 
शारीरा मानसा दिव्या वैयासे ये च मानुषा: ।
भौतिकाश्च कथं क्लेशा बाधन्ते हरिसंश्रयम् ॥ ३७ ॥
 
शब्दार्थ
शारीरा:—शरीर सम्बधी; मानसा:—मन सम्बन्धी; दिव्या:—दैवी शक्ति सम्बन्धी(दैवताओं का); वैयासे—हे विदुर; ये—जो; च—यथा; मानुषा:—अन्य मनुष्यों से सम्बन्धित; भौतिका:—अन्य जीवों से सम्बन्धित; च—तथा; कथम्—कैसे; क्लेशा:—दुख; बाधन्ते—कष्ट पहुँचा सकते हैं; हरि-संश्रयम्—जिसने भगवान् कृष्ण की शरण ली हुई है ।.
 
अनुवाद
 
 अत: हे विदुर, जो व्यक्ति भगवान् कृष्ण के शरणागत हैं, भला वे किस प्रकार शरीर, मन, प्रकृति, अन्य मनुष्यों तथा जीवित प्राणियों से सम्बन्धित कष्टों में पड़ सकते हैं।
 
तात्पर्य
 इस संसार का प्रत्येक जीव किसी न किसी प्रकार के कष्ट से पीडि़त है, चाहे वह शरीर से सम्बन्धित हो या मन अथवा भौतिक विपदाओं से सम्बन्धित हो। इस संसार में अतिशीत तथा अतिताप से सबों को कष्ट पहुँचता है, किन्तु जिस किसी ने कृष्णभावनामृत के अंतर्गत भगवान् के चरणकमलों में शरण प्राप्त कर ली है, वह दिव्य अवस्था को प्राप्त होता है। वह किसी प्रकार के कष्ट से विचलित नहीं होता चाहे वह शरीर तथा मन से सम्बन्धित कष्ट हों या कि शीत तथा ग्रीष्म के प्राकृतिक उत्पात हों। वह इन कष्टों से परे है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥