वर्ण तथा आश्रम का समूचा सामाजिक ढाँचा सहयोग पर निर्भर है और सबों को आत्मबोध के उच्च पद तक उठाने के निमित्त है। ब्राह्मणों की रक्षा क्षत्रियों द्वारा की जानी चाहिए और ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रियों को ज्ञान दिया जाना चाहिए। जब ब्राह्मण तथा क्षत्रिय सहयोग से रहते हैं, तो अन्य गौण विभाग, यथा वैश्य तथा शूद्र भी स्वयमेव फलते-फूलते हैं। फलत: वैदिक समाज की समग्र विकास प्रक्रिया ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों की महत्ता पर आश्रित थी। वास्तविक त्राता तो भगवान् ही हैं, किन्तु वे रक्षा कार्य से विरत रहते हैं। उन्होंने ब्राह्मणों की सुरक्षा के लिए क्षत्रिय और क्षत्रियों की रक्षा के लिए ब्राह्मण उत्पन्न किया। वे समस्त गतिविधियों से विलग रहने वाले हैं इसीलिए उन्हें निर्विकार कहा गया है। उन्हें कुछ भी नहीं करना होता। वे इतने महान् हैं कि वे कोई कार्य स्वयं नहीं करते वरन् उनकी शक्तियाँ कार्य करती हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा अन्य जो कुछ दीखता है वे उनकी शक्तियों के परिणाम हैं। यद्यपि आत्माएँ पृथक्-पृथक् होती हैं, किन्तु परमात्मा तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। व्यष्टि रुप से व्यक्ति का ‘आत्मा’ गुणों में अन्यों से कुछ-कुछ भिन्न हो सकता है और भिन्न कार्य भी कर सकता है यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य के सम्बन्ध में, किन्तु जब इन विभिन्न आत्माओं में पूर्ण सहयोग (समन्वय) होता है, तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् परमात्मा रूप में प्रत्येक आत्मा में आसीन रहते हुए उन्हें रक्षा प्रदान करने में प्रसन्न होते हैं हैं। जैसाकि कहा जा चुका है, ब्राह्मण भगवान् के मुख से तथा क्षत्रिय उनके वक्षस्थल या बाहुओं से उत्पन्न हुए हैं। यदि विभिन्न जातियाँ या सामाजिक विभाग भिन्न-भिन्न कार्यों में रत होकर भी पूर्ण सहयोग स्थापित रखते हैं, तो भगवान् प्रसन्न होते हैं। चार वर्णों तथा चार आश्रमों की संस्थापना का मन्तव्य यही है। यदि विभिन्न आश्रमों तथा वर्गों के सदस्य कृष्ण-भक्ति में परस्पर सहयोग करें तो इसमें सन्देह नहीं कि भगवान् द्वारा समाज पूर्णतया संरक्षित हो जाय।
भगवद्गीता में कहा गया है कि भगवान् समस्त देहों के स्वामी हैं। प्रत्येक जीव अपने- अपने शरीर का स्वामी है, किन्तु भगवान् ने स्पष्ट कहा है, “हे भारत! तुम्हें ज्ञात हो कि मैं भी क्षेत्रज्ञ हूँ।” क्षेत्रज्ञ का अर्थ है, “शरीर का ज्ञाता अथवा स्वामी।” प्रत्येक जीव अपने शरीर का स्वामी है, किन्तु श्रीभगवान् कृष्ण परमात्मा हैं, वे सर्वत्र समस्त शरीरों के स्वामी हैं। वे न केवल इस लोक के वरन् अन्य लोकों के मनुष्यों के ही नहीं वरन् पशु-पक्षी तथा अन्य जीवों के शरीरों के स्वामी हैं। वे परम स्वामी हैं फलत: पृथक्-पृथक् जीवों की रक्षा करते हुए भी वे विभक्त नहीं होते। वे एक ही रहते हैं। मध्याह्न के समय जब सूर्य सबों के सिर के ऊपर दिखता है, तो वह विभक्त नहीं होता। एक मनुष्य सोचता है कि सूर्य उसी के सिर के ऊपर है, किन्तु पाँच हजार मील दूसरा मनुष्य सोचता है कि सूर्य उसी के सिर पर है। इसी तरह परमात्मा एक है, परन्तु वह प्रत्येक शरीर के भीतर दिखाई पड़ता है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि आत्मा (जीव) तथा परमात्मा एक हैं। आत्मा होने के कारण वे गुण में समान हैं, किन्तु आत्मा तथा परमात्मा पृथक्-पृथक् हैं।