श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 22: कर्दममुनि तथा देवहूति का परिणय  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  3.22.6 
दिष्टय‍ा मे भगवान् द‍ृष्टो दुर्दर्शो योऽकृतात्मनाम् ।
दिष्टय‍ा पादरज: स्पृष्टं शीर्ष्णा मे भवत: शिवम् ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
दिष्ट्या—सौभाग्य से; मे—मेरा; भगवान्—सर्व शक्तिमान; दृष्ट:—देखा जाता है; दुर्दर्श:—सरलता से न दिखने वाला; य:—जो; अकृत-आत्मनाम्—जिन्होंने अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में नहीं किया; दिष्ट्या—अपने भाग्य से; पाद-रज:—पैरों की धूलि; स्पृष्टम्—स्पर्श करने पर; शीर्ष्णा—शिर से; मे—मेरा; भवत:—आपका; शिवम्— कल्याणकारी ।.
 
अनुवाद
 
 यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपके दर्शन हो सके क्योंकि जिन लोगों ने अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में नहीं किया उन्हें आपके दर्शन दुर्लभ हैं। मैं आपके चरणों की धूलि को शिर से स्पर्श करके और भी कृतकृत्य हुआ हूँ।
 
तात्पर्य
 दिव्य जीवन की पूर्णता पवित्र पुरुष के चरणकमलों की पवित्र धूल का स्पर्श करके प्राप्त की जा सकती है। भागवत में कहा गया है—महत्-पाद-रजोऽभिषेकम् अर्थात् महत अथवा महान् भक्त के चरणों की पवित्र धूल से अभिषिक्त। जैसाकि भगवद्गीता में उल्लेख है—महात्मानस्तु—महान् पुरुष आत्मिक शक्ति के वश में रहते हैं और उनका लक्षण यह है कि वे कृष्ण-भावनामृत में पूरी तरह से लीन रहते हैं। इसीलिए महत् कहलाते हैं। जब तक महात्मा के चरणों की धूलि को कोई अपने शिर पर चढ़ा नहीं लेता, तब तक आत्म- जीवन में सिद्धि मिलने की कोई सम्भावना नहीं रहती।

आत्म-उन्नति के लिए शिष्य-परम्परा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य अपने महत् गुरु की कृपा से ही महत् बनता है। यदि कोई किसी महापुरुष के चरणों की शरण ग्रहण करता है, तो उसके महान् बनने की काफी सम्भावना रहती है। जब महाराज रहूगण ने जड़ भरत से उनकी अद्भुत आत्म-उन्नति के सम्बन्ध में प्रश्न किया, तो उन्होंने राजा को उत्तर दिया कि केवल धार्मिक कर्मकाण्डों का पालन करने या केवल संन्यासी बनने अथवा शास्त्रोक्त विधि से यज्ञ करने से ही आध्यात्मिक उन्नति नहीं मिलती। ये विधियाँ निस्सन्देह आत्म-बोध में सहायक होती हैं, किन्तु वास्तविक प्रभाव तो महात्मा की कृपा से पड़ता है। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने गुरु की स्तुति में आठ श्लोक लिखे हैं। उसमें उन्होंने स्पष्ट कहा है कि गुरु को केवल प्रसन्न करने से जीवन में परम सफलता प्राप्त होती है और समस्त अनुष्ठानों को करते हुए भी यदि कोई गुरु को प्रसन्न नहीं कर पाता तो उसकी आत्मसिद्धि तक पहुँच नहीं हो पाती। यहाँ पर अकृतात्मनाम् शब्द महत्त्वपूर्ण है। आत्मा के अर्थ हैं शरीर, आत्मा अथवा मन और अकृतात्मा का अर्थ है सामान्य व्यक्ति, जो अपनी इन्द्रियों या मन को वश में नहीं रख पाता। इसीलिए सामान्य व्यक्ति को महापुरुष या भगवान् के परम भक्त की शरण ढूँढनी चाहिए और उसे प्रसन्न करने का प्रयत्न करना चाहिए। इससे उसका जीवन पूर्ण हो सकेगा। मात्र अनुष्ठानों एवं धार्मिक सिद्धान्तों के पालन से सामान्य व्यक्ति आत्मिक-सिद्धि की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकता। उसे प्रामाणिक गुरु की शरण ग्रहण करनी होगी और उसके निर्देशन में श्रद्धा एवं निष्ठा के साथ कार्य करना होगा। तभी वह सिद्धि प्राप्त कर सकेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

 
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