श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 22: कर्दममुनि तथा देवहूति का परिणय  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  3.22.7 
दिष्टय‍ा त्वयानुशिष्टोऽहं कृतश्चानुग्रहो महान् ।
अपावृतै: कर्णरन्ध्रैर्जुष्टा दिष्ट्योशतीर्गिर: ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
दिष्ट्या—सौभाग्यवश; त्वया—तुम्हारे द्वारा; अनुशिष्ट:—उपदेशित; अहम्—मैं; कृत:—प्रदान किया हुआ; च—और; अनुग्रह:—कृपा; महान्—महान; अपावृतै:—खुले; कर्ण-रन्ध्रै:—कानों के छिद्रों से; जुष्टा:—ग्रहण किया गया; दिष्ट्या—भाग्य से; उशती:—शुद्ध; गिर:—शब्द ।.
 
अनुवाद
 
 सौभाग्य से मुझे आपके द्वारा उपदेश प्राप्त हुआ है और इस प्रकार आपने मेरे ऊपर महती कृपा की है। मैं भगवान् को धन्यवाद देता हूँ कि मैं अपने कान खोलकर आपके विमल शब्दों को सुन रहा हूँ।
 
तात्पर्य
 श्रील रूप गोस्वामी ने अपने ग्रंथ भक्तिरसासृत-सिन्धु में निर्देश दिये हैं कि किस प्रकार प्रामाणिक गुरु ग्रहण किया जाय और उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाय। पहले इच्छुक व्यक्ति को प्रामाणिक गुरु की खोज करनी चाहिए और तब अत्यन्त उत्सुकता के साथ उपदेश प्राप्त करना चाहिए और तदनुसार कार्य करना चाहिए। यह दोतरफी (पारस्परिक) सेवा है। प्रामाणिक गुरु या साधु पुरुष सदैव अपने पास आने वाले को ऊपर उठाने के लिए इच्छुक रहते हैं। चूँकि प्रत्येक व्यक्ति माया के मोहसे वशीभूत है और वह अपने मुख्य कर्तव्य, कृष्ण भक्ति, को भूलता रहता है, अत: साधु-पुरुष चाहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति संत स्वरूप बन जाय। प्रत्येक साधु पुरुष का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक भुलक्कड़ सामान्य पुरुष में कृष्णभक्ति जागृत करे।

मनु ने कहा चूँकि कर्दम मुनि से उन्हें उपदेश प्राप्त हुआ, अत: वह कृतकृत्य हो गया। कानों से सन्देश प्राप्त करके वह अपने को भाग्यशाली मान रहा है। यहाँ इसका विशेष उल्लेख है कि मनुष्य को प्रामाणिक गुरु से कान खोलकर सन्देश सुनना चाहिए। लेकिन इसे कैसे प्राप्त किया जाय? मनुष्य को कानों से दिव्य सन्देश ग्रहण करना चाहिए। कर्ण-रन्ध्रै: शब्द का अर्थ है “कान के छेदों के माध्यम से।” गुरु की कृपा शरीर के अन्य किसी भाग से न प्राप्त होकर केवल कानों से प्राप्त होती है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि गुरु कुछ धन लेकर बदले में कान में कोई मन्त्र दे जिसके ध्यान से छह महीनों में ही सिद्धि प्राप्त करके ईश्वर बना जा सकता है। कान से ऐसी ग्राह्यता नकली है। वास्तविकता तो यह है कि प्रामाणिक गुरु जानता रहता है कि मनुष्य किस प्रकार का है और कृष्ण-भावनामृत में वह कैसे कार्य कर सकता है, अत: वह उसी प्रकार से उसे उपदेश देता है। वह उसे कान में चुपके से नहीं वरन् सबों के समक्ष उपदेश देता है, “तुम कृष्णभक्ति में अमुक अमुक कार्य के लिए उपयुक्त हो। तुम इस प्रकार कार्य कर सकते हो।” किसी व्यक्ति को श्रीविग्रह के कमरे में कृष्णभक्ति करने को कहा जा सकता है, तो दूसरे को साहित्य-सम्पादन कार्य करने को, तीसरे को उपदेश देने और अन्य किसी को रसोईघर का प्रबन्ध करने को कहा जा सकता है। कृष्णभक्ति में कार्य करने के लिए भिन्न-भिन्न विभाग हैं और गुरु व्यक्ति-विशेष की क्षमता को जानते हुए उसे इस प्रकार शिक्षा देता है कि वह पूर्ण बन सके। भगवद्गीता में स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्य अपनी क्षमता के अनुसार सेवा करके आध्यात्मिक जीवन की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करता है, जिस प्रकार अर्जुन ने अपने सैन्य-कौशल से कृष्ण की सेवा की। अर्जुन एक सैनिक की भाँति अपनी सेवाएँ अर्पित करके पूर्ण बन सका। इसी प्रकार कोई कलाकार अपने गुरु के निर्देशन में कलात्मक कार्य करते हुए सिद्धि प्राप्त कर सकता है। यदि कोई व्यक्ति साहित्य में रुचि रखता है, तो वह गुरु के निर्देशन मे लेख अथवा कविताओं की रचना करके भगवान की सेवा कर सकता है। मनुष्य को अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करने के सम्बन्ध में अपने गुरु से सन्देश ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि गुरु ऐसा उपदेश देने में पटु होता है।

गुरु द्वारा उपदेश और शिष्य द्वारा निष्ठापूर्वक उसका पालन के संयोग से समूची प्रणाली पूर्ण बन जाती है। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर भगवद्गीता के इस श्लोक—व्यवसायात्मिका बुद्धि:—की व्याख्या में कहते हैं कि जो आत्मिक उन्नति चाहता है उसे चाहिए कि अपने गुरु से आदेश प्राप्त करे कि उसका विशेष कार्य क्या है। उसे विशेष उपदेश को श्रद्धापूर्वक सम्पन्न करना चाहिए और उसी को अपना सर्वस्व समझना चाहिए। शिष्य का एकमात्र कर्तव्य है कि वह अपने गुरु से प्राप्त उपदेश का श्रद्धापूर्वक पालन करे। इसीसे उसे सिद्धि मिलेगी। मनुष्य को कानों से गुरु का सन्देश ग्रहण करने में सतर्क रहना चाहिए और उसे श्रद्धापूर्वक निष्पन्न करना चाहिए। इससे उसका जीवन सफल हो सकेगा।

 
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