चक्षुष्मत्पद्मरागाग्र्यैर्वज्रभित्तिषु निर्मितै: ।
जुष्टं विचित्रवैतानैर्महार्हैर्हेमतोरणै: ॥ १९ ॥
शब्दार्थ
चक्षु:-मत्—मानो आँखों से युक्त हो; पद्म-राग—लालमणि, माणिक; अछयै:—चुने हुए; वज्र—हीरे की; भित्तिषु— दीवालों पर; निर्मितै:—जड़े हुए; जुष्टम्—सुसज्जित; विचित्र—तरह तरह के; वैतानै:—वितानों (चँदोवों) से; महा- अर्है:—अत्यन्त बहुमूल्य; हेम-तोरणै:—सोने के तोरणों (द्वारों) से ।.
अनुवाद
वह हीरों की दीवालों में जड़े हुए मनभावने माणिक से ऐसा प्रतीत होता था मानो नेत्रों से युक्त हो। वह विचित्र चँदोवों और अत्यधिक मूल्यवान सोने के तोरणों से सुसज्जित था।
तात्पर्य
ऐसे कलापूर्ण आभूषण और सजावट, जिससे आँखों जैसी आकृति प्रकट हो, काल्पनिक नहीं हैं। यहाँ तक कि अर्वाचीन वर्षों में मुगल सम्राटों ने बहुमूल्य हीरे-मोतियों की पच्चीकारी वाले पक्षी, जिनके नेत्र बहुमूल्य प्रस्तरों के बने थे, निर्मित कराये थे। यद्यपि अधिकारियों ने इन प्रस्तरों को निकाल लिया है, किन्तु तो भी नई दिल्ली के मुगल सम्राटों द्वारा निर्मित किलों में पच्चीकारी अब भी विद्यमान है। शाही महलों का निर्माण मणियों तथा नेत्र के समान दुर्लभ पत्थरों से हुआ था कि इस प्रकार इनसे रात्रि के समय प्रकाश फेंक सकें और दीपकों की आवश्यकता नहीं रहेगी।
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