विहारस्थानविश्रामसंवेशप्राङ्गणाजिरै: ।
यथोपजोषं रचितैर्विस्मापनमिवात्मन: ॥ २१ ॥
शब्दार्थ
विहार-स्थान—क्रीड़ा-स्थल; विश्राम—आराम करने के कक्ष; संवेश—शयनगृह; प्राङ्गण—आँगन; अजिरै:—बाहरी खुला स्थान, चौक; यथा-उपजोषम्—सुविधानुसार; रचितै:—निर्मित; विस्मापनम्—विस्मय उत्पन्न करने वाले; इव—निस्सन्देह; आत्मन:—स्वयं (कर्दम द्वारा) ।.
अनुवाद
उस प्रासाद में क्रीड़ास्थल, विश्रामघर, शयनगृह, आँगन तथा चौकें थीं जो नेत्रों को सुख देने वाली थीं। इन सबसे स्वयं मुनि को विस्मय हो रहा था।
तात्पर्य
साधु-संत पुरुष होने के कारण कर्दम मुनि एक सादी झोपड़ी में रह रहे थे, अत: जब उन्होंने अपनी योगशक्ति से निर्मित प्रासाद को देखा जिसमें विश्रामगृह, काम-क्रीड़ा के कक्ष तथा भीतरी एवं बाहरी आँगन थे, तो वे स्वयं विस्मित हुए। देव-तुल्य पुरुष का यही ढंग है। कर्दम मुनि जैसे भक्त ने अपनी पत्नी की विनती पर अपनी योगशक्ति से जितना ऐश्वर्य प्रदर्शित किया उस पर स्वयं उन्हें आश्चर्य हो रहा था। जब योगी की शक्ति प्रदर्शित होती है, तो कभी-कभी योगी स्वयं विस्मित हो जाता है।
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