स:—मुनि; ताम्—उसको (देवहूति को); कृत-मल-स्नानाम्—स्वच्छ स्नान किये हुए; विभ्राजन्तीम्—चमकती हुई; अपूर्व-वत्—अतुलनीय; आत्मन:—उसका निजी; बिभ्रतीम्—से युक्त; रूपम्—सौंदर्य; संवीत—कसे हुए; रुचिर— मोहक; स्तनीम्—वक्षस्थलों वाली; विद्याधरी—गंधर्वकुमारियों से; सहस्रेण—एक हजार; सेव्यमानाम्—सेवित; सु वाससम्—श्रेष्ठ वस्त्रों से युक्त; जात-भाव:—भाव से विभोर; विमानम्—प्रासाद जैसा विमान; तत्—उस; आरोहयत्—उसे चढ़ा लिया; अमित्र-हन्—हे शत्रुओं के नाशकर्ता ।.
अनुवाद
मुनि ने देखा कि देवहूति ने स्नान कर लिया है और चमक रही है मानो वह उनकी पहले वाली पत्नी नहीं है। उसने राजकुमारी जैसा अपना पूर्व सौन्दर्य पुन: प्राप्त कर लिया था। वह श्रेष्ठ वस्त्रों से आच्छादित सुन्दर वक्षस्थलों वाली थी। उसकी आज्ञा के लिए एक हजार गंधर्व कन्याएँ खड़ी थीं। हे शत्रुजित, मुनि को उसकी चाह उत्पन्न हुई और उन्होंने उसे हवाई-प्रासाद में चढ़ा लिया।
तात्पर्य
विवाह के पूर्व जब देवहूति अपने माता-पिता के साथ कर्दम मुनि के समक्ष आई थी तो वह अत्यन्त सुन्दरी राजकुमारी थी। कर्दम मुनि को उसके पूर्व सौन्दर्य का स्मरण था। किन्तु ब्याह के बाद वह मुनि की सेवा में तल्लीन हो गई और उसने अपने शरीर की परवाह न की, क्योंकि कोई साधन नहीं था। वह पति के साथ कुटी में रहकर उसकी सेवा में लगी रहती थी, जिससे उसका राजसी सौन्दर्य जाता रहा और वह एक सामान्य दासी की तरह लगने लगी थी। जब कर्दम मुनि की आज्ञा से गंधर्व कुमारियों ने उसे स्नान कराया तो उसे पूर्ववत् सौन्दर्य प्राप्त हो गया जिससे कर्दम मुनि उससे आकृष्ट हुए। तरुणी का वास्तविक सौन्दर्य उसके स्तनों में है। जब कर्दम मुनि ने अपनी पत्नी के अलंकृत स्तनों को देखा, जिससे उसका सौंदर्य कई गुना बढ़ा हुआ था, तो एक महान् मुनि होते हुए भी वे आकर्षित हो गये। अत: श्रीपाद शंकराचार्य ने दिव्य ज्ञानियों को सचेत किया कि जो दिव्य-साक्षात्कार के लिए तत्पर रहते हैं उन्हें स्त्रियों के उन्नत स्तनों से आकृष्ट नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे शरीर के भीतर चर्बी तथा रक्त की अन्त:क्रिया के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं।
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