श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 23: देवहूति का शोक  »  श्लोक 39
 
 
श्लोक  3.23.39 
तेनाष्टलोकपविहारकुलाचलेन्द्र-
द्रोणीस्वनङ्गसखमारुतसौभगासु ।
सिद्धैर्नुतो द्युधुनिपातशिवस्वनासु
रेमे चिरं धनदवल्ललनावरूथी ॥ ३९ ॥
 
शब्दार्थ
तेन—उस विमान से; अष्ट-लोक-प—आठों स्वर्गलोकों के मुख्य देवताओं का; विहार—भ्रमणस्थली; कुल-अचल- इन्द्र—पर्वतों के राजा (मेरु) की; द्रोणीषु—घाटियों में; अनङ्ग—कामदेव का; सख—साथी; मारुत—वायु से; सौभगासु—सुन्दर; सिद्धै:—सिद्धों के द्वारा; नुत:—प्रशंसित; द्यु-धुनि—गंगा की; पात—गिरने की; शिव स्वनासु—मंगलध्वनि से हिलती; रेमे—सुख भोगा; चिरम्—दीर्घकाल तक; धनद-वत्—कुबेर के समान; ललना— कन्याओं से; वरूथी—घिरे हुए ।.
 
अनुवाद
 
 उस हवाई-प्रासाद में आरूढ़ हो वे मेरु पर्वत की सुखद घाटियों में भ्रमण करते रहे जो शीतल, मन्द तथा सुगन्ध वायु से अधिक सुन्दर होकर कामवासना को उत्तेजित करनेवाली थी। इन घाटियों में देवताओं का धनपति कुबेर सुन्दरियों से घिरा रहकर और सिद्धों द्वारा प्रशंसति होकर आनन्द लाभ उठाता है। कर्दम मुनि भी अपनी पत्नी तथा उन सुन्दर कन्याओं से घिरे हुए वहाँ गये और अनेक वर्षों तक सुख-भोग किया।
 
तात्पर्य
 कुबेर उन आठ देवताओं में से एक हैं, जो ब्रह्माण्ड की विभिन्न दिशाओं के स्वामी हैं। कहा जाता है कि इन्द्र ब्रह्माण्ड की पूर्व दिशा के स्वामी हैं, जिधर स्वर्ग स्थित है। इसी प्रकार अग्नि आग्नेय दिशा (दक्षिण-पूर्व) के स्वामी हैं। पापियों को दण्ड देने वाले यम दक्षिण दिशा के और निर्ऋति नैऋत्य दिशा (दक्षिण-पश्चिम) के स्वामी है। जल के स्वामी वरुण पश्चिम दिशा के स्वामी हैं तथा हवा को वश में रखने वाले तथा पंखों से उडऩे वाले वायु वायव्य (उत्तर-पश्चिम) दिशा के स्वामी हैं। देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर ब्रह्माण्ड की उत्तर दिशा के स्वामी हैं। ये सारे देवता सूर्य तथा पृथ्वी के मध्य कहीं पर स्थित मेरुपर्वत की घाटी में आनन्द मनाते हैं। कर्दम मुनि ने इस हवाई प्रासाद में आठों दिशाओं की यात्रा की जिसका नियन्त्रण विभिन्न देवता करते हैं। देवताओं की भाँति वे भी मेरु पर्वत में विहार करने गये। जब कोई मनुष्य तरुणी सुन्दरियों से घिरा हो तो कामवासना का जागृत होना स्वाभाविक है। कर्दम मुनि को भी उत्तेजना हुई और वे वर्षों तक वहीं अपनी पत्नी के साथ विहार करते रहे। किन्तु उनके इस काम-व्यापार की सिद्धों ने प्रशंसा की, क्योंकि विश्व-कल्याण के लिए एक उत्तम संतान की आवश्यकता थी।
 
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