श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 23: देवहूति का शोक  »  श्लोक 43
 
 
श्लोक  3.23.43 
प्रेक्षयित्वा भुवो गोलं पत्‍न्यै यावान् स्वसंस्थया ।
बह्वाश्चर्यं महायोगी स्वाश्रमाय न्यवर्तत ॥ ४३ ॥
 
शब्दार्थ
प्रेक्षयित्वा—दिखलाकर; भुव:—ब्रह्माण्ड का; गोलम्—गोलक; पत्न्यै—अपनी पत्नी को; यावान्—जितना भी; स्व-संस्थया—अपनी रचना सहित; बहु-आश्चर्यम्—अनेक आश्चर्यों से पूर्ण; महा-योगी—परमयोगी (कर्दम); स्व- आश्रमाय—अपने आश्रम को; न्यवर्तत—लौट आया ।.
 
अनुवाद
 
 अपनी पत्नी को अनेक आश्चर्यों से पूर्ण ब्रह्माण्ड गोलक तथा इसकी रचना दिखलाकर परमयोगी कर्दम मुनि अपने आश्रम को लौट आये।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर सभी लोकों को गोल अर्थात् गोला कहकर वर्णन किया गया है। प्रत्येक लोक (ग्रह) गोला होता है और वैसे ही विश्रामस्थल है, जिस प्रकार सागर के भीतर द्वीप होता है। लोकों को कभी-कभी द्वीप या वर्ष भी कहते हैं। यह पृथ्वीलोक भारतवर्ष कहलाता है, क्योंकि राजा भरत इसमें राज्य करते थे। इस श्लोक में प्रयुक्त दूसरा महत्त्वपूर्ण शब्द है बह्वाश्चर्यम् अर्थात् “अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ”। यह इस बात का सूचक है कि विभिन्न लोक ब्रह्माण्ड भर में आठों दिशाओं में फैले हुए हैं और इनमें से प्रत्येक आश्चर्यमय है। इनमें से प्रत्येक लोक की अपनी जलवायु है और विशिष्ट प्रकार के निवासी हैं और हर एक में सभी वस्तुएँ हैं, यहाँ तक कि ऋतुओं की सुन्दरता भी है। इसी प्रकार ब्रह्म-संहिता (५.४०) में कहा गया है—विभूतिभिन्नम्—प्रत्येक लोक में भिन्न-भिन्न प्रकार का ऐश्वर्य है। ऐसा नहीं है कि एक लोक दूसरे के जैसा ही हो; भगवान् की कृपा से, प्रकृति के नियमानुसार प्रत्येक लोक की रचना भिन्न प्रकार से हुई है और उसका आश्चर्यजनक ढाँचा भी भिन्न है। कर्दम मुनि को ऐसे सभी आश्चर्यों का स्वयं को अनुभव तब हुआ जब वे अपनी पत्नी के साथ यात्रा कर रहे थे, किन्तु तो भी वे अपने सादे से आश्रम में लौट आये। उन्होंने अपनी राजकुमारी-पत्नी को दिखा दिया कि भले ही वे आश्रम में रह रहे थे, किन्तु वे अपने योगबल से कहीं भी जा सकते थे और कुछ भी कर सकते थे। यही योग की सिद्धि है। मात्र कतिपय आसनों का प्रदर्शन करके कोई पूर्ण योगी नहीं बन सकता और न ही ऐसे आसनों के प्रदर्शन एवं तथाकथित ध्यान से कोई ईश्वर बन सकता है, जैसाकि आजकल विज्ञापित किया जा रहा है। मूर्ख लोग विश्वास करके दिग्भ्रमित हो जाते हैं कि छ: मास के भीतर ध्यान के ढोंग तथा आसन करने मात्र से वे ईश्वर बन सकते हैं।

यहाँ पर ऐसे पूर्णयोगी का उदाहरण प्रस्तुत है, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की यात्रा कर सकता था। इसी प्रकार दुर्वासा मुनि का वर्णन है जिन्होंने अन्तरिक्ष की यात्रा की थी। वस्तुत: पूर्ण योगी ही ऐसा कर सकता है। किन्तु यदि कोई ब्रह्माण्ड भर की यात्रा कर ले और कर्दम मुनि जैसी आश्चर्यजनक करामातें दिखावे तो भी उसकी तुलना पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से नहीं की जा सकती, क्योंकि उनकी अकल्पनीय शक्ति को कोई भी बद्धजीव या मुक्तजीव प्राप्त नहीं कर सकता। कर्दम मुनि के कार्यों से हम समझ सकते हैं कि महान् योगशक्ति होने पर भी वे भगवान् के भक्त बने रहे। प्रत्येक जीवात्मा की असली स्थिति यही है।

 
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