विभज्य—विभक्त करके; नव-धा—नौ रूपों में; आत्मानम्—स्वयं को; मानवीम्—मनु की पुत्री (देवहूति); सुरत— संभोग के लिए; उत्सुकाम्—अत्यन्त इच्छुक; रामाम्—अपनी पत्नी को; निरमयन्—आनन्द प्रदान करते हुए; रेमे— सुख भोगा; वर्ष-पूगान्—अनेक वर्षों तक; मुहूर्तवत्—एक क्षण के सृदश ।.
अनुवाद
अपने आश्रम लौटने पर उन्होंने मनु की पुत्री देवहूति के सुख लिए, जो रति सुख के लिए अत्यधिक उत्सुक थी, अपने आपको नौ रूपों में विभक्त कर लिया। इस प्रकार उन्होंने उसके साथ अनेक वर्षों तक विहार किया, जो एक क्षण के समान व्यतीत हो गये।
तात्पर्य
यहाँ पर मनु की पुत्री देवहूति को सुरतोत्सुक बतलाया गया है। अपने पति के साथ समस्त ब्रह्माण्ड की यात्रा करके, मेरु पर्वत तथा स्वर्गलोक के मनोरम उद्यानों की सैर करने से वह स्वभाविक रुप से कामोत्तेजित हो उठी और कर्दम मुनि ने उसकी कामेच्छा को तुष्ट करने के लिए नौ रूपों में अपना विस्तार कर लिया। वे एक के स्थान पर नौ हो गये और इस प्रकार नौ व्यक्तियों ने देवहूति के साथ वर्षों तक संभोग किया। ऐसा समझा जाता है कि स्त्री की काम-क्षुधा पुरुष की अपेक्षा नौ-गुनी अधिक होती है। इसका यहाँ पर स्पष्ट उल्लेख है। अन्यथा कर्दम मुनि को नौ रूपों में अपना विस्तार करने की कोई आवश्यकता न थी। यहाँ पर योगशक्ति का अन्य उदाहरण प्राप्त होता है। जिस प्रकार श्रीभगवान् लाखों रूपों में अपना विस्तार कर सकते हैं उसी प्रकार योगी नौ रूपों में अपना विस्तार कर सकता है, किन्तु उससे अधिक नहीं। एक अन्य दृष्टान्त सौभरि मुनि का है। उन्होंने आठ रूपों में अपना विस्तार किया था। किन्तु योगी चाहे कितना ही शक्तिमान क्यों न हो वह आठ या नौ रूपों से अधिक में अपना विस्तार नहीं कर सकता। किन्तु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तो लाखों रूप ग्रहण कर सकते हैं, वे अनन्त रूप जो हैं जैसाकि ब्रह्म-संहिता में उन्हें कहा गया है। भगवान् की समता किसी भी कल्पनीय शक्ति से नहीं की जा सकती।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.