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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 23: देवहूति का शोक  »  श्लोक 50
 
 
श्लोक  3.23.50 
लिखन्त्यधोमुखी भूमिं पदा नखमणिश्रिया ।
उवाच ललितां वाचं निरुध्याश्रुकलां शनै: ॥ ५० ॥
 
शब्दार्थ
लिखन्ती—कुरेदती हुई; अध:-मुखी—अपना मुँह नीचे किये; भूमिम्—पृथ्वी को; पदा—अपने पाँव से; नख— नाखूनों; मणि—मणि के तुल्य; श्रिया—दमक से; उवाच—वह बोली; ललिताम्—मोहक; वाचम्—वाणी; निरुध्य—रोक कर; अश्रु-कलाम्—आँसू; शनै:—धीरे-धीरे ।.
 
अनुवाद
 
 वह खड़ी थी और मणितुल्य नाखूनों से मण्डित अपने पैर से पृथ्वी को कुरेद रही थी। उसका सिर झुका था और वह अपने आँसुओं को रोककर धीरे-धीरे मोहक वाणी से बोली।
 
तात्पर्य
 देवहूति इतनी सुन्दर थी कि उसके पैर के नाखून मोतियों जैसे लग रहे थे। वह भूमि को नाखूनों से कुरेद रही थी तो ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो भूमि पर मोती बिखरे हों। जब कोई स्त्री अपने पाँव से जमीन कुरेदती है, तो यह इसका संकेत है कि उसका मन विचलित है। ऐसे ही संकेत कभी-कभी गोपियाँ श्रीकृष्ण के समक्ष प्रकट करती थीं। जब गोपियाँ अर्द्धरात्रि के समय श्रीकृष्ण के पास गईं तो उन्होंने उनसे अपने-अपने घरों को जाने के लिए कहा। उस समय गोपियाँ इसी प्रकार से भूमि कुरेदने लगीं, क्योंकि उनके मन अत्यधिक विक्षुब्ध थे।
 
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