देवहूति ने कहा—हे स्वामी, आपने जितने वचन दिये थे वे सब पूर्ण हुए, किन्तु मैं आपकी शरणागत हूँ इसलिए मुझे अभयदान भी दें।
तात्पर्य
देवहूति ने अपने पति से प्रार्थना की कि वे उसे अभय प्रदान करें। पत्नी रूप में वह अपने पति के प्रति पूर्णतया समर्पित थी, अत: यह पति का धर्म है कि वह अपनी पत्नी को अभयदान दे। श्रीमद्भागवत के पंचम स्कंध में बताया गया है कि अपने आश्रित को किस प्रकार अभयदान दिया जाता है। जो मृत्यु के चंगुल से नहीं छूट पाता वह आश्रित है, उसे चाहिए कि वह न तो गुरु बने, न पति, न परिजन, न पिता, न माता इत्यादि। यह तो श्रेष्ठों का धर्म है कि अपने अधीनस्थ को अभयदान दें। अत: पिता, माता, गुरु, नातेदार या पति के रूप में किसी की जिम्मेदारी लेने वाले को चाहिए कि अपने अधीनस्थ को संसार की भयावह स्थिति से छुटकारा दिलाए। भौतिक जीवन सदैव भयावह एवं चिन्ताओं से पूर्ण है। देवहूति कहती है, “आपने मुझे अपनी योगशक्ति से सभी प्रकार की भौतिक सुविधाएँ प्रदान की हैं और अब आप प्रस्थान करने वाले हैं, अत: आप अपना अन्तिम दान (वर) भी देते जाएँ जिससे मैं इस बद्धजीवन से मुक्त हो सकूँ”।
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