श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 23: देवहूति का शोक  »  श्लोक 52
 
 
श्लोक  3.23.52 
ब्रह्मन्दुहितृभिस्तुभ्यं विमृग्या: पतय: समा: ।
कश्चित्स्यान्मे विशोकाय त्वयि प्रव्रजिते वनम् ॥ ५२ ॥
 
शब्दार्थ
ब्रह्मन्—हे ब्राह्मण; दुहितृभि:—कन्याओं के द्वारा; तुभ्यम्—तुम्हारे लिए; विमृग्या:—ढूँढे जाने के हुए; पतय:—पति; समा:—उपयुक्त; कश्चित्—कोई; स्यात्—होना चाहिए; मे—मेरा; विशोकाय—सान्त्वना के लिए; त्वयि—तुम्हारे; प्रव्रजिते—जा चुकने पर; वनम्—जंगल को ।.
 
अनुवाद
 
 हे ब्राह्मण, जहाँ तक आपकी पुत्रियों का प्रश्न है, वे स्वयं ही अपने योग्य वर ढूँढ लेंगी और अपने अपने घर चली जाएँगी। किन्तु आपके संन्यासी होकर चले जाने पर मुझे कौन सान्त्वना देगा?
 
तात्पर्य
 कहा गया है कि पिता ही दूसरे रूप में पुत्र बन जाता है। अत: पिता और पुत्र अभिन्न माने जाते हैं। पुत्रवती विधवा नहीं होती, क्योंकि उसके पास पति का प्रतिनिधि रहता है। इसी प्रकार देवहूति अप्रत्यक्ष रूप से कर्दम मुनि से एक प्रतिनिधि छोड़ जाने की याचना करती है, जिससे वह उनकी अनुपस्थिति में चिन्तामुक्त रह सके। गृहस्थ से यह आशा नहीं की जाती है कि वह सदैव घर पर रह सकेगा। अपने पुत्रों तथा पुत्रियों का ब्याह करके वह अपनी पत्नी को सयाने पुत्रों के संरक्षण में छोडक़र गृहस्थ जीवन से वैराग्य ले सकता है। वैदिक पद्धति की सामाजिक परम्परा ही ऐसी है। देवहूति अप्रत्यक्ष रूप से यह कह रही है कि घर से अनुपस्थित रहने की अवधि में कम से कम एक पुत्र अवश्य होना चाहिए जो उसे चिन्ताओं से मुक्ति दिला सके। इस मुक्ति का अर्थ है आध्यात्मिक शिक्षा। इस मुक्ति का अर्थ भौतिक सुविधाएँ नहीं है। भौतिक सुविधाएँ तो शरीर के साथ ही समाप्त हो जाएँगी, किन्तु आध्यात्मिक शिक्षा अन्त होता नहीं, यह तो आत्मा के साथ-साथ जाएगी। अध्यात्म की शिक्षा आवश्यक है, किन्तु योग्य पुत्र प्राप्त किये बिना देवहूति आध्यात्मिक ज्ञान कैसे प्राप्त कर पाती? पति का धर्म है कि वह स्त्री-ऋण से मुक्त हो जाय। पत्नी एकनिष्ठ होकर पति की सेवा करती है और वह ऋणी बन जाता है, क्योंकि कोई अपने आश्रित की सेवा तब तक स्वीकार नहीं करता जब तक वह बदले में कुछ दे न देता। गुरु कभी भी आध्यात्मिक शिक्षा दिए बिना शिष्य की सेवा स्वीकार नहीं करता। प्रेम तथा कर्तव्य का यही पारस्परिक आदान-प्रदान है। इस प्रकार देवहूति कर्दम मुनि को स्मरण दिलाती है कि उसने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सेवा की है। यदि वे स्त्री-ऋण से ही मुक्त होना चाहें तो प्रस्थान करने से पूर्व उन्हें चाहिए कि एक पुत्र दे जाँय। अप्रत्यक्ष रूप में देवहूति ने अपने पति से कुछ अधिक काल तक और या कम से कम जब तक एक पुत्र न हो ले, रहने के लिए प्रार्थना करती है।
 
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