हे स्वामी, मैं निश्चित रूप से श्रीभगवान् की अलंघ्य माया द्वारा बुरी तरह से ठगी हुई हूँ, क्योंकि भवबन्धन से मुक्ति दिलाने वाली आपकी संगति में रह कर भी मैंने मुक्ति की चाहत नहीं की।
तात्पर्य
बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि सुअवसर का लाभ उठाए। पहला अवसर मनुष्य जीवन है और दूसरा अवसर ऐसे अनुकूल कुल में जन्म ग्रहण करना जहाँ आत्मज्ञान का अनुशीलन हो सके; यह अत्यन्त दुर्लभ है। किन्तु सबसे बड़ा अवसर है साधु पुरुष की संगति का प्राप्त होना। देवहूति को इसका आभास था कि वह एक सम्राट की पुत्री है, वह पर्याप्त शिक्षित और सुसंस्कृत भी थी और अन्त में उसे परम साधु तथा महान् योगी कर्दममुनि पति रूप में प्राप्त हुए थे। इतने पर भी उसे भवबन्धन से मुक्ति न मिल पाये तो अवश्य ही वह दुर्लंघ्य माया द्वारा ठगी गई है। वास्तव में यह माया सबों को ठग रही है। जब लोग वरदान प्राप्त करने के लिए देवी काली या दुर्गा के रूप में भौतिक शक्ति (माया) की पूजा करते हैं, तो वे नहीं जानते होते कि वास्तव में वे क्या कर रहे हैं। वे याचना करते हैं, “माँ! मुझे धन दो, मुझे अच्छी पत्नी दो, मुझे यश दो, मुझे सफलता दो” किन्तु मायादेवी या दुर्गादेवी के ये भक्त यह नहीं जानते कि वे उस देवी द्वारा ठगे जा रहे हैं। भौतिक उपलब्धि कोई उपलब्धि नहीं गिनी जाती, क्योंकि भौतिक वरदानों से वह ज्यों-ज्यों मोहित होता जाता है, त्यों-त्यों वह और बंधता जाता है और उसकी मुक्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। मनुष्य को इतना बुद्धिमान तो होना ही चाहिए कि आत्मबोध के लिए अपनी सम्पत्ति का किस प्रकार उपभोग करे। यही कर्म-योग या ज्ञानयोग कहलाता है। हमारे पास जो भी हो उसे परम पुरुष की सेवा के लिए उपयोग में लाना चाहिए। भगवद्गीता में उपदेश दिया गया है—स्व कर्मणा तमभ्यर्चया—मनुष्य को चाहिए कि अपने धनधान्य से वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा करने का प्रयत्न करे। भगवान् की सेवा करने के अनेक प्रकार हैं और कोई भी व्यक्ति अपनी सामर्थ्य भर भगवान् की सेवा कर सकता है।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कंध के अन्तर्गत “देवहूति का शोक” नामक तेईसवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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