श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 23: देवहूति का शोक  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  3.23.6 
कर्दम उवाच
तुष्टोऽहमद्य तव मानवि मानदाया:
शुश्रूषया परमया परया च भक्त्या ।
यो देहिनामयमतीव सुहृत्स देहो
नावेक्षित: समुचित: क्षपितुं मदर्थे ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
कर्दम: उवाच—परम साधु कर्दम ने कहा; तुष्ट:—प्रसन्न हूँ; अहम्—मैं; अद्य—आज; तव—तुमसे; मानवि—हे मनु की पुत्री; मान-दाया:—सम्माननीय; शुश्रूषया—सेवा से; परमया—सर्वश्रेष्ठ; परया—उच्चतम; च—तथा; भक्त्या— भक्ति से; य:—जो; देहिनाम्—देहधारियों को; अयम्—यह; अतीव—अत्यन्त; सुहृत्—प्रिय; स:—वह; देह:—देह; न—नहीं; अवेक्षित:—ध्यान दिया गया; समुचित:—ठीक से; क्षपितुम्—व्यय करना; मत्-अर्थे—मेरे लिए ।.
 
अनुवाद
 
 कर्दम मुनि ने कहा—हे स्वायंभुव मनु की मानिनी पुत्री, आज मैं तुम्हारी अत्यधिक अनुरक्ति तथा प्रेमपूर्ण सेवा से बहुत प्रसन्न हूँ। चूँकि देहधारियों को शरीर अत्यन्त प्रिय है, अत: मुझे आश्चर्य हो रहा है कि तुमने मेरे लिये अपने शरीर को उपेक्षित कर रखा है।
 
तात्पर्य
 यहाँ यह बतलाया गया है कि सबको अपना शरीर अत्यन्त प्रिय है, किन्तु देवहूति अपने पति के प्रति इतनी श्रद्धालु थी कि वह न केवल अत्यन्त अनुरक्ति, सेवा तथा सम्मान से पति की सेवा कर रही थी, वरन् उसे अपने स्वास्थ्य तक की परवाह नहीं थी। इसी को नि:स्वार्थ सेवा कहते हैं। ऐसा लगता है कि उसे अपने पति से इन्द्रिय-सुख नहीं प्राप्त था, अन्यथा उसका स्वास्थ्य क्षीण न होता। कर्दम मुनि की आध्यात्मिक उन्नति के लिए वह कार्य कर रही थी, निरन्तर उनकी सहायता करती थी और उसे अपने शारीरिक सुख की परवाह न थी। आज्ञाकारिणी तथा साध्वी पत्नी का यह धर्म है कि सब प्रकार से पति की सहायता करे, विशेष रूप से जब पति कृष्णभावनामृत में संलग्न हो। इस दृष्टान्त में, पति ने भी पत्नी को ठीक से पुरस्कृत किया। सामान्य पुरुष की पत्नी को कभी ऐसी आशा नहीं रहती।
 
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