श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 23: देवहूति का शोक  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  3.23.7 
ये मे स्वधर्मनिरतस्य तप:समाधि-
विद्यात्मयोगविजिता भगवत्प्रसादा: ।
तानेव ते मदनुसेवनयावरुद्धान्
द‍ृष्टिं प्रपश्य वितराम्यभयानशोकान् ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
ये—जो; मे—मेरे द्वारा; स्व-धर्म—अपना धार्मिक जीवन; निरतस्य—पूर्णतया लगे रहकर; तप:—तपस्या में; समाधि—ध्यान में; विद्या—कृष्णभावनामृत में; आत्म-योग—मन को स्थिर करके; विजिता:—प्राप्त किया गया; भगवत्-प्रसादा:—भगवान् के आशीर्वाद; तान्—उनको; एव—भी; ते—तुम्हारे द्वारा; मत्—मुझको; अनुसेवनया— भक्ति से; अवरुद्धान्—प्राप्त की गई; दृष्टिम्—दिव्य दृष्टि; प्रपश्य—देखो; वितरामि—मैं दे रहा हूँ; अभयान्—भयसे रहित; अशोकान्—शोक से रहित ।.
 
अनुवाद
 
 कर्दम मुनि ने आगे कहा—मैंने तप, ध्यान तथा कृष्णभक्ति का अपना धार्मिक जीवन बिताते हुए भगवान् का आशीर्वाद प्राप्त किया है। यद्यपि तुम्हें भय तथा शोक से रहित इन उपलब्धियों (विभूतियों) का अभी तक अनुभव नहीं है, किन्तु इन सबों को मैं तुम्हें प्रदान करूँगा, क्योंकि तुम मेरी सेवा में लगी हुई हो। अब उन्हें देखो तो। मैं तुम्हें दिव्यदृष्टि प्रदान कर रहा हूँ जिससे तुम देख सको कि वे कितनी सुन्दर हैं।
 
तात्पर्य
 देवहूति केवल कर्दम मुनि की सेवा में लगी रहती। वह तप, ध्यान या कृष्णभावनामृत में इतनी अग्रसर न थी, किन्तु अदृष्ट रूप से अपने पति की उपलब्धियों में हिस्सा प्राप्त कर रही थी, जिन्हें वह न तो देख सकती थी, न अनुभव कर सकती थी। उसे ये समस्त भगवान् की कृपाएँ स्वत: प्राप्त हो गईं।

भगवान् की ये कृपाएँ हैं क्या? यहाँ पर कहा गया है कि अभय ही वह कृपा है। इस भौतिक जगत में यदि कोई दस लाख डालर एकत्र कर लेता है, तो वह सदा डरा रहता है, क्योंकि सोचता है कि यदि यह धन चला गया तो फिर क्या होगा। किन्तु भगवत्-प्रसाद अर्थात् भगवान् द्वारा प्रदत्त आशीर्वाद कभी व्यर्थ नहीं जाता। इसका तो उपभोग ही करना होता है। उसकी क्षति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। मनुष्य को सुलभ उपलब्धि होती है और इस उपलब्धि का आनन्द मिलता है। भगवद्गीता में भी इसकी पुष्टि हुई है—जब भगवान् की कृपा प्राप्त होती है, तो सर्व-दु:खानि अर्थात् सभी प्रकार के दुख नष्ट हो जाते हैं। दिव्य स्थिति प्राप्त होने पर अहंकार तथा शोक इन दो भव-रोगों से मनुष्य मुक्त हो जाता है। भगवद्गीता में भी इसका उल्लेख है। भक्तिमय जीवन प्रारम्भ होते ही हमें भगवत्प्रेम का पूरा-पूरा फल प्राप्त हो जाता है। भगवत्-प्रसाद अर्थात् ईश्वरीय कृपा की सर्वोच्च सिद्धि कृष्ण का प्रेम है। यह दिव्य उपलब्धि इतनी मूल्यवान है कि कोई भौतिक सुख इसकी तुलना नहीं कर सकता। प्रबोधानन्द सरस्वती ने कहा है कि यदि किसी को भगवान् चैतन्य का अनुग्रह प्राप्त हो जाय तो वह इतना महान् बन जाता है कि वह देवताओं की परवाह नहीं करता, अद्वैतवाद को नरक तुल्य मानता है और इन्द्रियों को वश में करना उसके लिए अत्यन्त सरल कार्य है। स्वर्गिक आनन्द कथा- कहानियों से अधिक कुछ नहीं लगता। वस्तुत: भौतिक सुख तथा दिव्य सुख की कोई तुलना ही नहीं है।

कर्दम मुनि के अनुग्रह से देवहूति को मात्र सेवा करने से वास्तविक बोध हो गया। ऐसा ही उदाहरण हमें नारद मुनि के जीवन में प्राप्त होता है। अपने पूर्वजन्म में वे दासी के पुत्र थे, किन्तु उनकी माता परम भक्तों की सेवा में लगी रहती थी। उसे इन भक्तों की सेवा करने का अवसर मिला और वे उनका जूठन खाकर तथा उनकी आज्ञा का पालन करके ही अगले जन्म में इतने महान् बन सके। आध्यात्मिक उन्नति के लिए सबसे सुगम मार्ग है कि प्रामाणिक गुरु की शरण ग्रहण की जाय और मनोयोग से उसकी सेवा की जाय। सफलता का यही रहस्य है। जैसाकि विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने गुरु की प्रार्थना में कहा है—यस्य प्रसादाद्-भगवत्-

प्रसाद:—गुरु की सेवा करने या उनकी कृपा के प्रसाद से मनुष्य को परमेश्वर की कृपा प्राप्त होती है। अपने भक्त पति कर्दम की सेवा करके देवहूति उनकी उपलब्धियों में साझेदार बनी। इसी प्रकार एकनिष्ठ शिष्य प्रामाणिक गुरु की सेवा करके एकसाथ भगवान् तथा गुरु की कृपा प्राप्त कर सकता है।

 
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