श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 24: कर्दम मुनि का वैराग्य  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  3.24.10 
भगवन्तं परं ब्रह्म सत्त्वेनांशेन शत्रुहन् ।
तत्त्वसंख्यानविज्ञप्‍त्यै जातं विद्वानज: स्वराट् ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
भगवन्तम्—भगवान्; परम्—परम; ब्रह्म—ब्रह्म; सत्त्वेन—कल्मषरहित अस्तित्व वाला; अंशेन—अंश से; शत्रु-हन्— हे शत्रुओं के संहारक, विदुर; तत्त्व-सङ्ख्यान—चौबीस भौतिक तत्त्वों का दर्शन; विज्ञप्त्यै—व्याख्या के लिए; जातम्—उत्पन्न; विद्वान्—ज्ञाता; अज:—अजन्मा (ब्रह्मा); स्व-राट्—स्वच्छन्द ।.
 
अनुवाद
 
 मैत्रेय ने आगे कहा—हे शत्रुओं के संहारक, ज्ञान प्राप्त करने में प्राय: स्वच्छन्द, अजन्मा ब्रह्माजी समझ गये कि श्रीभगवान् का एक अंश अपने कल्मषरहि अस्तित्व में, सांख्ययोग रूप में समस्त ज्ञान की व्याख्या के लिए देवहूति के गर्भ से प्रकट हुआ है।
 
तात्पर्य
 भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय में बताया गया है कि भगवान् स्वयं ही वेदान्तसूत्र का संकलन करने वाले हैं और वे उसके पूर्ण ज्ञाता हैं। इसी प्रकार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने कपिल के रूप में प्रकट होकर सांख्य दर्शन का संकलन किया। एक नकली कपिल भी हैं जिनकी सांख्य दार्शनिक पद्धति प्रसिद्ध है, किन्तु भगवान् के अवतार श्रीकपिल इस कपिल से भिन्न हैं। कर्दम मुनि के पुत्र कपिल ने अपने सांख्य दर्शन में न केवल भौतिक जगत वरन् आध्यात्मिक जगत की अत्यन्त सुस्पष्ट रुप से व्याख्या की है। ब्रह्मा इस तथ्य को जान गये, क्योंकि वे स्वराट् अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने के लिए पूर्णत: स्वतन्त्र हैं। वे इसीलिए स्वराट् हैं, क्योंकि उन्होंने प्रत्येक वस्तु स्वत: भीतर से सीखी, इसके लिए वे किसी स्कूल या कालेज में शिक्षा प्राप्त करने नहीं गये। इस ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा के आदि जीव होने के कारण उनका कोई शिक्षक नहीं है; उनके शिक्षक स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, जो प्रत्येक प्राणी के ह्रदय में आसीन हैं। ब्रह्मा ने हृदय के भीतर स्थित परमेश्वर से प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया। इसीलिए वे कभी-कभी स्वराट् तथा अज कहलाते हैं।

यहाँ एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात कही गई है। सत्त्वेनांशेन—जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् प्रकट होते हैं, तो वे अपने साथ वैकुण्ठ का सारा साज-सामान लेते आते हैं, फलत: उनके नाम, रूप, गुण, सामग्री तथा परिचारक (साथी) दिव्य जगत से सम्बन्धित रहते हैं। दिव्य जगत में ही वास्तविक सत्त्व (अच्छाई) है। भौतिक जगत में सत्त्व गुण कभी शुद्ध नहीं होता। सतोगुण के अस्तित्व के साथ ही काम तथा अविद्या का भी अल्पांश रहता है। आध्यात्मिक जगत में सत्त्व प्रधान अमिश्रित गुण है; अत: सत्त्व गुण शुद्ध-सत्त्व कहलाता है। शुद्ध-सत्त्व का ही अन्य नाम वासुदेव है, क्योंकि ईश्वर का जन्म वसुदेव से होता है। अन्य अर्थ यह है कि जब कोई सत्त्व गुण को प्राप्त होता है, तो वह श्रीभगवान् के रूप, नाम, गुण, सामग्री तथा परिचारक को अच्छी तरह समझ सकता है। अंशेन शब्द भी बताता है कि श्रीभगवान् श्रीकृष्ण अपने एक अंश के भी अंश से कपिलदेव के रूप में प्रकट हुए। ईश्वर ‘कला’ अथवा ‘अंश’ रूप में विस्तार करते हैं। अंश का अर्थ प्रत्यक्ष विस्तार है और कला का अर्थ है विस्तार का भी विस्तार। विस्तार, विस्तार के भी विस्तार तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् में उसी प्रकार से कोई अन्तर नहीं है जैसे एक दीपक तथा दूसरे दीपक में कोई भेद नहीं हैं, तो भी जिस दीपक से सब जलते हैं वह आदि दीपक कहलाता है। इसीलिए श्रीकृष्ण परब्रह्म तथा समस्त कारणों के कारण कहलाते हैं।

 
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