एतावती—इस हद तक; एव—ठीक ठीक; शुश्रूषा—सेवा; कार्या—करनी चाहिए; पितरि—पिता की; पुत्रकै:— पुत्रों के द्वारा; बाढम् इति—स्वीकार करते हुए, ‘जो आज्ञा’; अनुमन्येत—आज्ञा पालन करना चाहिए; गौरवेण— आदरपूर्वक; गुरो:—गुरु के; वच:—आदेश ।.
अनुवाद
पुत्रों को अपने पिता की ऐसी ही सेवा करनी चाहिए। पुत्र को चाहिए कि अपने पिता या गुरु के आदेश का पालन सम्मानपूर्वक “जो आज्ञा” कहते हुए करे,।
तात्पर्य
इस श्लोक में दो शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं एक तो पितरि और दूसरा गुरो:। पुत्र अथवा शिष्य को चाहिए कि वह अपने पिता या गुरु के वचनों को बिना झिझक के माने। पिता अथवा गुरु जो कुछ भी आदेश दे उसपर बिना तर्क के “हाँ” कह दे। ऐसा कोई अवसर नहीं आना चाहिए जब शिष्य या पुत्र यह कहे, “यह उचित नहीं है, मैं इसे नहीं कर सकता।” यदि वह यह कहता है, तो वह पतित हो चुका है। पिता तथा गुरु का समान पद है, क्योंकि गुरु दूसरा पिता होता है। उच्च वर्ग के लोग द्विज—दो बार जन्मा—कहलाते हैं। जब भी जन्म की बात उठेगी, पिता का होना आवश्यक होगा। पहला जन्म तो वास्तविक पिता के कारण होता है, किन्तु दूसरा जन्म गुरु द्वारा ही सम्भव हो पाता है। कभी पिता तथा गुरु एक ही व्यक्ति हो सकते हैं, तो कभी कभी भिन्न भिन्न। प्रत्येक अवस्था में पिता या गुरु की आज्ञा का तुरन्त हाँ करते हुए पालन होना चाहिए। उसमें किसी प्रकार का तर्क नहीं करना चाहिए। यही गुरु तथा पिता की असली सेवा है। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने कहा है कि गुरु की आज्ञा शिष्यों के लिए जीवन और आत्मा तुल्य है। जिस प्रकार मनुष्य शरीर से आत्मा को पृथक् नहीं कर सकता उसी प्रकार शिष्य अपने जीवन से गुरु आज्ञा को दूर नहीं कर सकता। यदि शिष्य इस प्रकार से गुरु उपदेश का पालन करता है, तो वह अवश्य सिद्ध बनेगा। उपनिषदों में इसकी पुष्टि हुई है—जो लोग श्रीभगवान् तथा अपने गुरु में श्रद्धा रखते हैं उन्हें वैदिक शिक्षा स्वत: प्राप्त हो जाती है। कोई भौतिक दृष्टि से भले ही अनपढ़ हो, किन्तु यदि उसे गुरू के साथ ही साथ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् पर उसकी श्रद्धा है, तो उसके समक्ष शास्त्रों का ज्ञान तुरन्त प्रकट हो जाता है।
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