यहाँ पर अविद्या शब्द अत्यन्त सार्थक है। अविद्या का अर्थ है अपने स्वरूप को भूल जाना। हममें से प्रत्येक आत्मा है, किन्तु हम इसे भूल गये हैं। हम सोचते हैं, “मैं यह शरीर हूँ।” यही अविद्या कहलाती है। संशय-ग्रंथि का अर्थ है सन्देहात्मकता। जब आत्मा अपने को भौतिक जगत से अभिन्न मानता है, तो संदेहात्मकता की ग्रंथि जकड़ती जाती है। यही ग्रंथि अहंकार कहलाती है, अर्थात् पदार्थ तथा आत्मा का गठबंधन। शिष्य-परम्परा से प्राप्त समुचित ज्ञान तथा उस ज्ञान के समुचित अनुशीलन से ही मनुष्य पदार्थ तथा आत्मा के गठबंधन से मुक्त हो सकता है। ब्रह्मा ने देवहूति को आश्वासन दिया कि उसका पुत्र उसे ज्ञान प्रदान करेगा और फिर सांख्य दर्शन की पद्धति का वितरण करने के लिए सारे विश्व का भ्रमण करेगा।
संशय शब्द का अर्थ ‘संदेहास्पद ज्ञान’ है। काल्पनिक तथा छद्म योग सम्बन्धी ज्ञान संशयात्मक होता है। आज के समय में तथाकथित योग पद्धति इस भावना पर आधारित है कि शारीरिक संरचना के विभिन्न अंगों के संचालन से मनुष्य ईश्वर बन सकता है। बौद्धिक कल्पनावादी भी ऐसा ही सोचते हैं, किन्तु वे सभी संशयग्रस्त रहते हैं। वास्तविक ज्ञान का प्रतिपादन भगवद्गीता में हुआ है, “केवल कृष्णभावनाभावित बनो, कृष्ण की ही पूजा करो और कृष्ण के भक्त बन जाओ।” यही असली ज्ञान है और जो भी इस पद्धति का अनुकरण करता है, वह निश्चित रूप से सिद्ध बन जाता है।