तान्येव तेऽभिरूपाणि रूपाणि भगवंस्तव ।
यानि यानि च रोचन्ते स्वजनानामरूपिण: ॥ ३१ ॥
शब्दार्थ
तानि—वे; एव—सचमुच; ते—तुम्हारे; अभिरूपाणि—अनुकूल; रूपाणि—रूप; भगवन्—हे भगवान्; तव— तुम्हारा; यानि यानि—जो जो; च—तथा; रोचन्ते—अच्छे लगते हैं; स्व-जनानाम्—अपने भक्तों को; अरूपिण:— बिना भौतिक रूप वाले का ।.
अनुवाद
हे भगवन्, यद्यपि आपका कोई भौतिक रूप नहीं है, किन्तु आपके अपने ही अनन्त रूप हैं। वे सचमुच ही आपके दिव्य रूप हैं और आपके भक्तों को आनन्दित करनेवाले हैं।
तात्पर्य
ब्रह्म-संहिता में कहा गया है कि भगवान् तो एक ही परमपूर्ण हैं, परन्तु उनके अनन्त रूप हैं। अद्वैतमच्युतमनादिम् अनन्तरूपम्—भगवान् आदि रूप हैं किन्तु फिर भी उनके नाना रूप हैं। ये विविध रूप उनके अनेक प्रकार के भक्तों की रुचियों के अनुसार प्रकट होते रहते हैं। कहा जाता है कि एक बार भगवान् रामचन्द्र के परमभक्त हनुमान ने कहा कि लक्ष्मीपति नारायण तथा सीतापति राम एक ही हैं और सीता तथा लक्ष्मी में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु स्वयं उन्हें भगवान् राम का रूप अधिक प्रिय था। इसी प्रकार कुछ भक्त श्रीकृष्ण के आदि रूप की पूजा करते हैं। जब हम ‘कृष्ण’ कहते हैं, तो हम न केवल कृष्ण वरन् भगवान् के सभी रूपों—राम, नृसिंह, वराह, नारायण आदि का उल्लेख करते हैं। दिव्य रूपों की ये किस्में एक साथ विद्यमान हैं। ब्रह्म-संहिता में भी इसका उल्लेख है—रामादि मूर्तिषु...नानावतारम्। वे पहले से नाना रूपों में विद्यमान हैं, किन्तु इनमें से कोई भी रूप भौतिक नहीं हैं। श्रीधर स्वामी ने टीका की है कि अरूपिण: अर्थात् “रूपविहीन” वास्तव में बिना भौतिक रूप के लिए प्रयुक्त है। भगवान् के रूप होता है अन्यथा यहाँ यह क्यों कहा जाता—तान्येव तेऽभिरूपाणि रूपाणि भगवंस्तव—आपके अपने रूप हैं, किन्तु वे भौतिक नहीं हैं। आपके भौतिक दृष्टि से कोई रूप नहीं है, किन्तु आध्यात्मिक, तात्त्विक दृष्टि से आप नाना रूपों वाले हैं। मायावादी दार्शनिक भगवान् के इन दिव्य रूपों को नहीं समझ पाते, अत: निराश होकर वे परमेश्वर को निराकर बताते हैं। किन्तु तथ्य यह नहीं है; जब भी कोई रूप होता है, तो व्यक्ति भी होता है। वैदिक साहित्य में अनेक बार भगवान् को पुरुष कहा गया है, जिसका अर्थ है, “आदि रूप, आदि भोक्ता।” निष्कर्ष यह निकला कि भगवान् के कोई रूप नहीं होता फिर भी विभिन्न कोटि के भक्तों की रुचियों के अनुसार वे एकसाथ नाना रूपों में विद्यमान रहते हैं यथा राम, नृसिंह, वराह, नारायण तथा मुकुन्द। ऐसे हजारों लाखों रूप हैं, किन्तु वे सभी विष्णु तत्त्व, कृष्ण, हैं।
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