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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 24: कर्दम मुनि का वैराग्य  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  3.24.32 
त्वां सूरिभिस्तत्त्वबुभुत्सयाद्धा
सदाभिवादार्हणपादपीठम् ।
ऐश्वर्यवैराग्ययशोऽवबोध-
वीर्यश्रिया पूर्तमहं प्रपद्ये ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
त्वाम्—तुमको; सूरिभि:—परम साधुओं द्वारा; तत्त्व—परम सत्य; बुभुत्सया—जानने की इच्छा से; अद्धा—निश्चय ही; सदा—सदैव; अभिवाद—अभिवादनों का; अर्हण—योग्य; पाद—आपके पैरों के; पीठम्—आसन को; ऐश्वर्य—ऐश्वर्य; वैराग्य—विराग; यश:—कीर्ति; अवबोध—ज्ञान; वीर्य—पौरुष; श्रिया—सौन्दर्य से; पूर्तम्—पूर्ण; अहम्—मैं; प्रपद्ये—शरण में हूँ, समर्पण करता हूँ ।.
 
अनुवाद
 
 हे भगवान्, आपके चरणकमल ऐसे कोष के समान हैं, जो परम सत्य को जानने के इच्छुक बड़े-बड़े ऋषियों-मुनियों का सदैव आदर प्राप्त करने वाला है। आप ऐश्वर्य, वैराग्य, दिव्य यश, ज्ञान, वीर्य और सौन्दर्य से ओत-प्रोत हैं अत: मैं आपके चरणकमलों की शरण में हूँ।
 
तात्पर्य
 असल में जो परम सत्य की खोज में लगे हैं, उन्हें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करके उनकी पूजा करनी चाहिए। भगवद्गीता में भगवान् ने अर्जुन को कई बार सलाह दी कि वह उनकी शरण में आवे, विशेष रूप से नवें अध्याय के अन्त में वे कहते हैं मन्मना भव मद्भक्त:—“यदि तुम सिद्ध बनना चाहते हो तो सदैव मेरा स्मरण करो, मेरे भक्त बनो, मेरी ही पूजा करो और मुझी को नमस्कार करो। इस प्रकार तुम मुझ श्रीभगवान् को जान सकोगे और अन्त में मेरे पास, मेरे धाम को वापस आ सकोगे।” ऐसा करों है भगवान् सदैव छ: प्रकार के ऐश्वर्यों से युक्त रहते हैं। ये हैं—धन, वैराग्य, यश, ज्ञान, वीर्य तथा रूप। पूर्तम् शब्द का अर्थ “पूर्णत:” है। कोई यह दावा नहीं कर सकता कि सारी सम्पत्ति उसकी अपनी है, किन्तु श्रीकृष्ण ऐसा कह सकते हैं, क्योंकि वे सर्व ऐश्वर्यसम्पन्न हैं। इसी प्रकार वे ज्ञान, वैराग्य, वीर्य तथा रूप से भी परिपूर्ण हैं। वे प्रत्येक वस्तु से युक्त हैं, उनसे कोई पार नहीं पा सकता। श्रीकृष्ण का एक अन्य नाम असमौर्ध्व है, जिसका अर्थ है कि कोई भी न तो उनके समान है और न बड़ा।
 
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