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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 24: कर्दम मुनि का वैराग्य  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  3.24.34 
आ स्माभिपृच्छेऽद्य पतिं प्रजानां
त्वयावतीर्णर्ण उताप्तकाम: ।
परिव्रजत्पदवीमास्थितोऽहं
चरिष्ये त्वां हृदि युञ्जन् विशोक: ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
आ स्म अभिपृच्छे—मैं पूछ रहा या आज्ञा माँग रहा हूँ; अद्य—अब; पतिम्—भगवान्; प्रजानाम्—समस्त प्राणियों का; त्वया—तुम्हारे द्वारा; अवतीर्ण-ऋण:—ऋणमुक्त; उत—तथा; आप्त—पूर्ण; काम:—इच्छाएँ; परिव्रजत्—परिव्राजक की; पदवीम्—पथ; आस्थित:—स्वीकार करते हुए; अहम्—मैं; चरिष्ये—भ्रमण करूँगा; त्वाम्—तुम; हृदि—मेरे हृदय में; युञ्जन्—रखते हुए; विशोक:—शोक से मुक्त ।.
 
अनुवाद
 
 समस्त जीवात्माओं के स्वामी मुझे आप से आज कुछ पूछना है। चूँकि आपने मुझे अब पितृ-ऋण से मुक्त कर दिया है और मेरे सभी मनोरथ पूरे हो चुके हैं, अत: मैं संन्यास-मार्ग ग्रहण करना चाहता हूँ। इस गृहस्थ जीवन को त्याग कर मैं शोकरहित होकर अपने हृदय में सदैव आपको धारण करते हुए सर्वत्र भ्रमण करना चाहता हूँ।
 
तात्पर्य
 वस्तुत: संन्यास अथवा गृहस्थ जीवन के परित्याग के लिए आवश्यक है कृष्णभावनामृत में पूर्ण तल्लीन और अपने में डूबे रहना। कोई संन्यास इसलिए नहीं ग्रहण करता कि वह फिर से परिवार बसावेगा या संन्यास के नाम पर कोई षड्यंत्र खड़ा करेगा। संन्यासी का कार्य न तो अनेक वस्तुओं का स्वामी बनना है और न भोली भाली जनता से धन का संग्रह करना है। संन्यासी को सदैव गर्व रहता है कि अपने अन्त:करण में वह सदैव श्रीकृष्ण का चिन्तन करता रहता है। निस्सन्देह भगवान् के भक्तों के दो प्रकार हैं। एक गोष्ठ्य आनन्दी कहलाते हैं, अर्थात् जो धर्मोंपदेश हैं और भगवान् की महिमा का उपदेश देने के लिए उनके अनेक अनुयायी होते हैं। दूसरे भक्त आत्मानन्दी अथवा आत्म-तुष्ट हैं, जो धर्मोंपदेश का कार्य नहीं करते। वे ईश्वर के साथ एकान्त में रहते हैं। कर्दममुनि इसी प्रकार के भक्त थे। वे सब प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त होकर अपने अन्त:करण में भगवान् को बसाकर अकेले रहना चाह रहे थे। परिव्राज का अर्थ है, “भ्रमण करने वाला साधु।” परिव्राजक संन्यासी को कहीं भी तीन दिन से अधिक नहीं रुकना चाहिए। उसे सदैव चलते रहना चाहिए, क्योंकि उसका धर्म है द्वार-द्वार जाकर मनुष्यों में कृष्णभावनामृत को बोध कराना।
 
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