भगवान् की सेवा में पूर्णतया तत्पर रहने के लिए कर्दममुनि अपना परिवार त्याग रहे थे। किन्तु उन्हें यह ज्ञात था कि भगवान् स्वयं कपिल रूप में उनके घर में उनके पुत्र बनकर जन्म ले चुके हैं, तो फिर वे आत्म-साक्षात्कार या ईश्वर बोध की खोज के लिए क्योंकर अपना घर छोडऩे जा रहे थे? जब भगवान् स्वयं उनके घर में विद्यमान थे तो वे घर क्यों छोड़ें? ऐसा प्रश्न उठ सकता है। किन्तु यहाँ पर यह कहा गया है कि जो कुछ वेदों में कथित है और जो कुछ लोक में प्रचलित है उसे ही प्रामाणिक मानना चाहिए। वैदिक प्रमाण के अनुसार पचासवें वर्ष में गृहस्थ को गृहत्याग कर देना चाहिए। पंचाशोर्ध्व वनं व्रजेत—मनुष्य को पचास वर्ष की आयु प्राप्त करने के बाद गृहस्थ जीवन त्यागकर वन में प्रवेश करना चाहिए। यह वेदों का प्रामाणिक कथन है, जो सामाजिक जीवन के कर्मानुसार चार विभागों—ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास पर आश्रित है। कर्दममुनि ने विवाह के पूर्व ब्रह्मचारी रहकर कठोर योग-साधना की थी और इतनी योग- शक्ति प्राप्त कर ली थी कि उनके पिता ब्रह्मा ने उन्हें ब्याह करके गृहस्थ बनकर सन्तान उत्पन्न करने का आदेश दिया। कर्दम ने वह भी किया; उनके नौ उत्तम कन्याएँ तथा एक पुत्र उत्पन्न हुआ। इस प्रकार उनका गृहस्थ जीवन भी सुचारु रूप से बीत गया और अब उनको गृहत्याग करना था। यद्यपि उन्हें पुत्र रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् मिल गये थे, तो भी उन्हें वेदों के प्रमाण का आदर करना था। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शिक्षा है। भले ही क्यों न किसी को अपने घर में पुत्र रूप में भगवान् प्राप्त हों, फिर भी उसे वैदिक आदेशों का पालन करना चाहिए। कहा गया है—महाजनो येन गत: स पन्था:—मनुष्यों को चाहिए कि महापुरुषों द्वारा ग्रहण किये गये पथ का अनुसरण करे।
कर्दममुनि का उदाहरण अत्यन्त शिक्षाप्रद है, क्योंकि पुत्र रूप में श्रीभगवान् को प्राप्त करके भी वैदिक आज्ञाओं के पालन हेतु उन्होंने घर को छोड़ दिया। यहाँ कर्दममुनि अपने गृहत्याग का मुख्य प्रयोजन बताते हैं—संसार का भ्रमण करते हुए वे अपने हृदय में श्रीभगवान् का निरन्तर स्मरण करते रहेंगे और इस प्रकार समस्त भव-चिन्ताओं से मुक्त रहेंगे। कलियुग में संन्यास वर्जित है, क्योंकि इस युग के सारे मनुष्य शूद्र हैं और वे संन्यास जीवन के विधि विधानों का ठीक से पालन नहीं कर सकते। सामान्य रूप से यह देखा जाता है कि तथाकथित संन्यासी भी कभी-कभी स्त्रियों के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध रखते हैं। यह इस युग की अत्यन्त अप्रिय स्थिति है। यद्यपि वे संन्यासियों का वस्त्र धारण करते हैं, किन्तु वे जीवन के चार प्रकार के पापों—अवैध यौनाचार, मांस भक्षण, मद्यपान तथा द्यूतक्रीड़ा से अपने को मुक्त नहीं रख सकते। चूँकि वे इन चारों से बच नहीं पाते, अत: वे स्वामी बनकर जनता को ठगते रहते हैं। कलियुग में यह आदेश है कि कोई संन्यास न ग्रहण करे। निस्सन्देह, जो विधि-विधानों का ठीक से पालन कर सकते हैं, वे संन्यासी बन सकते हैं। किन्तु सामान्यत: लोग संन्यास जीवन स्वीकार करने में अक्षम रहते हैं इसीलिए चैतन्य महाप्रभु ने बलपूर्वक कहा है—कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा। इस युग में भगवान् के पवित्र नाम—हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे—उच्चारण के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है, कोई विकल्प नहीं है, कोई विकल्प नहीं है। संन्यास जीवन का मुख्य उद्देश्य है चाहे हृदय में भगवान् का मनन करे या कानों से श्रवण करके परमेश्वर का निरन्तर साहचर्य प्राप्त करे। इस युग में मनन की अपेक्षा श्रवण करना अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मानसिक विक्षोभ के कारण मनन में बाधा पहुँच सकती है, किन्तु यदि सुनने में ध्यान केन्द्रित रहे तो उसे बाध्य होकर‘कृष्ण-कृष्ण’ की ध्वनि से साहचर्य स्थापित करना पड़ेगा। श्रीकृष्ण तथा ‘कृष्ण’ की ध्वनि का उच्चारण अभिन्न हैं अत: यदि कोई जोर से हरे कृष्ण का उच्चारण करता है, तो वह तुरन्त श्रीकृष्ण का मनन कर सकेगा।
इस युग में आत्म-साक्षात्कार के लिए कीर्तन (जप) की यह विधि सर्वश्रेष्ठ है, अत: भगवान् चैतन्य ने समग्र मानवता के कल्याण के लिए इसी का उपदेश दिया।