सभी मनुष्य परम सत्य को अनेक प्रकार से समझने के लिए इच्छुक रहते हैं— यथा ब्रह्मज्योति का अनुभव करके, ध्यान द्वारा अथवा चिन्तन द्वारा। किन्तु कपिलदेव माम् शब्द का प्रयोग बल देने के लिए करते हैं कि परमेश्वर परम सत्य की अन्तिम स्थिति है। भगवद्गीतामें श्रीभगवान् सदैव माम्—“मुझको”—का प्रयोग करते हैं, किन्तु दुष्ट लोग इसका दूसरा अर्थ लगाते हैं। माम् श्रीभगवान् ही हैं। यदि कोई श्रीभगवान् को जिस रूप में वे विभिन्न अवतारों में प्रकट होते हैं, देख सके और यह समझ सके कि उन्होंने भौतिक देह नहीं धारण की वरन् वे अपने नित्य, आत्म रूप में उपस्थित रहते हैं, तो वही श्रीभगवान् के स्वभाव को समझ सकता है। चूँकि अल्पज्ञानी इस बात को नहीं समझ पाते, इसीलिए इस पर बार-बार बल दिया गया है। जिस रूप में भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति के द्वारा कृष्ण, राम या कपिल रूप में उपस्थित होते हैं, यदि कोई इन रूपों का दर्शन भी कर ले तो वह ब्रह्मज्योति का दर्शन कर सकता है, क्योंकि ब्रह्मज्योति उनके शरीर की कान्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जिस प्रकार सूर्य प्रकाश, सूर्य की कान्ति है, अत: सूर्य को देखकर मनुष्य स्वत: ही सूर्य प्रकाश को देख लेता है, इसी प्रकार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का दर्शन कर लेने से मनुष्य एकसाथ परमात्मा स्वरुप के साथ ही साथ निर्गुण ब्रह्म का अनुभव करता है।
भागवत में पहले ही प्रतिपादित हो चुका है कि परम सत्य तीन रूपों में उपस्थित रहता है—प्रारम्भ में निर्गुण ब्रह्म के रूप में, फिर प्रत्येक मनुष्य के हृदय में परमात्मा रूप में और अन्त में परम सत्य, भगवान् के परम साक्षात्कार रूप में। जो परम पुरुष का दर्शन कर लेता है, वह स्वत: ही अन्य रूपों का अर्थात् परमात्मा तथा ब्रह्म रूपों का अनुभव कर लेता है। यहाँ पर विशोकोऽभयम् ऋच्छसि शब्द प्रयुक्त हैं। श्रीभगवान् के दर्शन मात्र से प्रत्येक वस्तु का बोध हो जाता है। फल यह होता है कि वह ऐसी दशा को प्राप्त होता है जहाँ न तो शोक है और न भय। श्रीभगवान् की भक्ति के द्वारा ही इसे प्राप्त किया जा सकता है।