श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 24: कर्दम मुनि का वैराग्य  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  3.24.41 
मैत्रेय उवाच
एवं समुदितस्तेन कपिलेन प्रजापति: ।
दक्षिणीकृत्य तं प्रीतो वनमेव जगाम ह ॥ ४१ ॥
 
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय मुनि ने कहा; एवम्—इस प्रकार; समुदित:—सम्बोधित होकर; तेन—उनके द्वारा; कपिलेन— कपिल द्वारा; प्रजापति:—मानव-समाज का जनक; दक्षिणी-कृत्य—परिक्रमा करके; तम्—उसको; प्रीत:— शान्तिपूर्वक; वनम्—जंगल को; एव—निस्सन्देह; जगाम—प्रस्थान किया; ह—तब ।.
 
अनुवाद
 
 श्रीमैत्रेय ने कहा—इस प्रकार अपने पुत्र कपिल द्वारा सम्बोधित किये जाने पर मानव समाज के जनक श्रीकर्दमुनि ने उसकी परिक्रमा की और अच्छे तथा शान्त मन से उन्होंने तुरन्त जंगल के लिए प्रस्थान कर दिया।
 
तात्पर्य
 जंगल जाना प्रत्येक मनुष्य के लिए अनिवार्य है। यह कोई मानसिक सैर (यात्रा) नहीं जिसे कोई एक करे और दूसरा न करे। प्रत्येक मनुष्य को कम से कम एक वानप्रस्थ के रूप में जंगल में जाना चाहिए। जंगल जाने का अर्थ होता है शत-प्रतिशत भगवान् की शरण में जाना, जैसाकि प्रह्लाद महाराज ने अपने पिता को बातोंबात में समझाया था—सदा समुद्विग्नधियाम् (भागवत ७.५.५)। मनुष्य क्षणिक भौतिक देह धारण करने के कारण चिन्ताओं से युक्त रहता है। अत: मनुष्य को चाहिए कि वह शरीर के प्रति अधिक मोह न करे, उसे चाहिए कि वह मुक्त हो। मुक्त होने की प्रारम्भिक प्रक्रिया है जंगल जाना अर्थात् पारिवारिक सम्बन्धों का परित्याग करके पूर्णरूप से कृष्णभावनामृत में लग जाना। जंगल जाने का यही प्रयोजन है। अन्यथा जंगल केवल बन्दरों तथा पशुओं का स्थान रह जाएगा। जंगल जाने का यह अर्थ कदापि नहीं कि बंदर या हिंस्र पशु बना जाय। इसका अभिप्राय यह हुआ कि एकमात्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की शरण ग्रहण की जाय और पूरी तरह सेवा में लगा जाय। वास्तव में मनुष्य को जंगल जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। सम्प्रति जिस मनुष्य ने अपना सारा जीवन नगरों में व्यतीत किया है उसके लिए यह उचित नहीं है। जैसाकि प्रह्लाद महाराज ने कहा है (हित्वात्म-पातं गृहम् अन्धकूपम्), मनुष्य को सदैव पारिवारिक झंझटों में ही नहीं लगे रहना चाहिए, क्योंकि कृष्णभक्ति के बिना गृहस्थ जीवन अन्धकूप के समान है। यदि कोई खेत में स्थित अंधे कुएँ में गिर पड़े तो वह वहाँ वर्षों चिल्लाता रहे, किन्तु न देख पाने के कारण कोई उसे बचाने नहीं जावेगा, न ही कोई समझ पावेगा कि यह चीख कहाँ से आ रही है। ऐसी दशा में मृत्यु निश्चित है। इसी प्रकार जो लोग भगवान् से अपने नित्य सम्बन्ध को भूल जाते हैं, वे गृहस्थजीवन के अन्धकूप में पड़े रहते हैं, उनकी स्थिति अत्यन्त अनिष्टकारी है। प्रह्लाद महाराज ने उपदेश दिया है कि मनुष्य को चाहिए कि किसी प्रकार इस कूप का परित्याग करे तथा कृष्णभावनामृत अपनाये और में लगे और इस तरह भव-बन्धन से मुक्त हो जाय।
 
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