श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 24: कर्दम मुनि का वैराग्य  »  श्लोक 45
 
 
श्लोक  3.24.45 
वासुदेवे भगवति सर्वज्ञे प्रत्यगात्मनि ।
परेण भक्तिभावेन लब्धात्मा मुक्तबन्धन: ॥ ४५ ॥
 
शब्दार्थ
वासुदेवे—वासुदेव को; भगवति—श्रीभगवान्; सर्व-ज्ञे—सर्वज्ञाता; प्रत्यक्-आत्मनि—प्रत्येक प्राणी के भीतर स्थिर परमात्मा; परेण—दिव्य; भक्ति-भावेन—भक्ति से; लब्ध-आत्मा—आत्मलीन होकर; मुक्त-बन्धन:—भवबन्धन से छूटा हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार वे बद्ध जीवन से मुक्त हो गये और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्थित सर्वज्ञ परमात्मा श्रीभगवान् वासुदेव की दिव्य सेवा में तल्लीन हो गये।
 
तात्पर्य
 जब कोई भगवान् की दिव्य भक्ति में लग जाता है, तो वह जान लेता है कि वह परमेश्वर वासुदेव का निरन्तर दास है। आत्म-साक्षात्कार का यह अर्थ नहीं है कि परमात्मा तथा व्यष्टि आत्मा दोनों ही आत्माएँ होने के कारण वे सभी प्रकार से समान हैं। व्यष्टि आत्मा के बद्ध होने की संभावना रहती है, किन्तु परम-आत्मा कभी बद्ध नहीं होता। जब बद्ध-आत्मा को यह बोध हो जाता है कि वह परम-आत्मा के अधीन है, तो उसकी यह स्थिति लब्धात्मा, आत्म-साक्षात्कार अथवा मुक्तबन्धन अर्थात् भौतिक कल्मष से मुक्ति कहलाती है। भौतिक कल्पष तब तक बना रहता है जब तक वह अपने को परमेश्वर के समान मानता रहता है। यह अवस्था माया का अन्तिम जाल है। माया सदैव बद्धजीव को प्रभावित करती है। यदि पर्याप्त चिन्तन तथा मनन के बाद भी कोई अपने को परमेश्वर से अभिन्न मानता है, तो यही समझना चाहिए कि वह माया के जाल में है।

परेण शब्द अत्यन्त सार्थक है। पर का अर्थ है “दिव्य, भौतिक कल्मष से अप्रभावित।” अपने को भगवान् का नित्य दास समझना पराभक्ति कहलाती है। यदि मनुष्य का भौतिक वस्तुओं से लगाव रहता है और वह किसी लाभवश भक्ति करता है, तो यह विद्धाभक्ति— कल्मषयुक्त भक्ति—कहलाती है। पराभक्ति के निष्पादन से ही वास्तव में मुक्त हुआ जा सकता है।

यहाँ पर अन्य शब्द सर्व-ज्ञे का उल्लेख हुआ है। प्रत्येक हृदय में स्थित परमात्मा सब कुछ जानता है। मुझे शरीर परिवर्तन के कारण विगत कर्मों का विस्मरण हो सकता है, किन्तु परमेश्वर परमात्मा रूप में मेरे भीतर स्थित है, अत: वह सब कुछ जानता है, फलत: मुझे पूर्वकर्मों का फल मिलता है। मैं भूल सकता हूँ, किन्तु भगवान् मेरे पूर्वजन्म के सुकर्मों या दुष्ककर्मों के अनुसार मुझे सुख या दुख प्रदान करते हैं। मनुष्य को यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि उसे गत जीवन के कर्मों का स्मरण नहीं है, अत: वह बन्धन से मुक्त हो गया। बन्धन तो होंगे ही, किन्तु किस प्रकार के होंगे इसका निर्णय परमात्मा द्वारा होगा जो उनका साक्षी है।

 
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