उन्हें दिखाई पडऩे लगा कि सबों के हृदय में श्रीभगवान् स्थित हैं और प्रत्येक जीव उनमें स्थित है, क्योंकि वे प्रत्येक के परमात्मा हैं।
तात्पर्य
प्रत्येक प्राणी श्रीभगवान् में स्थित है—इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि प्रत्येक प्राणी भी भगवान् है। भगवद्गीता में भी इसकी व्याख्या की गई है—परमेश्वर पर सभी वस्तुएँ आश्रित हैं, किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि परमेश्वर सर्वत्र है। इस रहस्य को महान् भक्त ही समझ सकते हैं। भक्त भी तीन प्रकार के होते हैं—नवदीक्षित भक्त, मध्यम कोटि के भक्त तथा महान् भक्त। नवदीक्षित भक्त भक्ति-विज्ञान की युक्तियों को नहीं समझता, वह केवल मन्दिर जाकर श्रीविग्रह की सेवा करता है, मध्यम कोटि का भक्त यह समझता है कि ईश्वर कौन है, भक्त कौन है, कौन अभक्त है, कौन निर्दोष है। वह इन सबके साथ भिन्न प्रकार से आचरण करता है। किन्तु जो व्यक्ति प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में परमात्मा का दर्शन पाता है और जानता है कि प्रत्येक वस्तु परमेश्वर की दिव्य शक्ति पर आश्रित है, वह उच्चतम भक्तिपद को प्राप्त होता है।
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