मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय ने कहा; देवहूती—देवहूति; अपि—भी; सन्देशम्—आदेश; गौरवेण—आदरपूर्वक; प्रजापते:—कर्दम का; सम्यक्—पूर्ण; श्रद्धाय—श्रद्धापूर्वक; पुरुषम्—पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्; कूट-स्थम्—प्रत्येक के हृदय में स्थित; अभजत्—पूजा की; गुरुम्—अत्यन्त पूज्य ।.
अनुवाद
श्री मैत्रेय ने कहा—देवहूति में अपने पति कर्दम के आदेश के प्रति अत्यन्त श्रद्धा तथा सम्मान था, क्योंकि वे ब्रह्माण्ड में मनुष्यों के उत्पन्न करने वाले प्रजापतियों में से एक थे। हे मुनि, इस प्रकार वह ब्रह्माण्ड के स्वामी घट-घट के वासी श्रीभगवान् की पूजा करने लगी।
तात्पर्य
यह आत्मबोध की प्रक्रिया है—मनुष्य को प्रामाणिक गुरु से उपदेश ग्रहण करना पड़ता है। कर्दम मुनि देवहूति के पति थे, किन्तु आत्म-सिद्धि कैसे प्राप्त की जाय इस का उपदेश करने के कारण स्वाभाविक रुप से वे गुरु भी थे। ऐसे अनेक उदाहरण विद्यमान हैं जहाँ पति गुरु बन जाता है। शिवजी भी अपनी प्रियतमा पार्वती के गुरु थे। पति को इतना ज्ञानी होना चाहिए कि वह कृष्णभावनामृत में प्रबुद्ध करने में अपनी पत्नी का गुरु बन सके। सामान्य तया एक स्त्री पुरुष की अपेक्षा कम बुद्धिमान होती है, अत: यदि पति बुद्धिमान होता है, तो स्त्री को अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए अच्छा अवसर प्राप्त होता है।
यहँा पर स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्य को अत्यन्त श्रद्धापूर्वक (सम्यक् श्रद्धाय) गुरु से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सेवा करनी चाहिए। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने भगवद्गीता की टीका करते हुए गुरु-उपदेश पर विशेष बल दिया है। मनुष्य को चाहिए कि गुरु उपदेश को अपना जीवन और आत्मा समझे। चाहे मुक्त हो या बद्ध, उसे चाहिए कि गुरु के अनुदेशों का श्रद्धापूर्वक पालन करे। यह भी कहा गया है कि ईश्वर सबों के हृदय में स्थित हैं। किसी को उन्हें बाहर ढ़ूँढऩे की आवश्यकता नहीं है, वे तो वहीं हैं। मनुष्य को केवल श्रद्धापूर्वक गुरु के उपदेशानुसार पूजा में ध्यान लगाना चाहिए। इससे सारे प्रयास सफल होंगे। यह भी स्पष्ट है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सामान्य बालक की तरह प्रकट नहीं होते, वे यावत् रूप में प्रकट होते हैं। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है वे अपनी आत्म- माया से प्रकट होते हैं। तो वे कब प्रकट होते हैं? जब वे भक्त की पूजा से प्रसन्न होते हैं तब। भक्त प्रार्थना कर सकता है कि वे उसके पुत्र रूप में जन्म लें। भगवान् प्रत्येक हृदय में पहले से आसीन हैं, अत: यदि भगवान् किसी भक्त के शरीर से प्रकट होते हैं, तो इसका यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि अमुक स्त्री उनकी माता हो गई। वे तो सदैव विद्यमान रहते हैं और अपने भक्त को प्रसन्न करने के लिए उसके पुत्र रूप में प्रकट होते हैं।
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