आत्म-प्रज्ञप्तये शब्द इस बात का सूचक है कि भगवान् मानव जाति के लाभार्थ दिव्य ज्ञान प्रदान करने के लिए अवतरित होते हैं। वैदिक ज्ञान के अनुसार इतनी भौतिक सुविधाएँ प्राप्य हैं कि अच्छी तरह जीवनयापन करके सतोगुण पद तक उठा जा सके। सतोगुणी होने पर मनुष्य का ज्ञान व्यापक होता है। रजोगुणी होने पर कोई ज्ञान नहीं हो पाता, क्योंकि रजस का अर्थ है भौतिक भोगों की वाञ्छा। तमोगुणी होने पर न तो ज्ञान होता है और न किसी प्रकार का सुख (भोग) ही होता है, क्योंकि यह जीवन पशुतुल्य बन जाता है। वेदों का उद्देश्य मनुष्य को तमोगुण से सतोगुण पद की ओर ले जाना है। सतोगुण को प्राप्त मनुष्य ही आत्मज्ञान अथवा दिव्य ज्ञान को समझ सकता है। सामान्य पुरुष इस ज्ञान को नहीं समझ पाता। चूँकि इसके लिए परम्परा आवश्यक है, फलत: यह ज्ञान या तो स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् द्वारा या उनके प्रामाणिक भक्त द्वारा व्याख्यायित होता है। यहाँ पर शौनक मुनि यह भी कहते हैं कि श्रीभगवान् के अवतार कपिल ने दिव्य ज्ञान का विस्तार करने के लिए ही जन्म धारण किया। मात्र इतना ही जान लेना कि मैं पदार्थ नहीं, अपितु आत्मा हूँ (अहं ब्रह्मास्मि—मैं बह्म हूँ) आत्मा तथा उसके कार्यकलापों को जान पाने के लिए पर्याप्त नहीं है।
मनुष्य को ब्रह्म के कार्यकलापों में स्थित होना चाहिए। इन कार्यकलापों का ज्ञान स्वयं श्रीभगवान् द्वारा व्याख्यायित होता है। ऐसे दिव्य ज्ञान को मानव समाज ही समझ सकता है, पशु-समाज नहीं, जैसाकि यहाँ पर नृणाम् “अर्थात् मनुष्यों के लिए” शब्द के द्वारा सूचित है। मनुष्य नियमित जीवन के लिए बना है। पशु-जीवन में भी स्वाभाविक नियमन है, किन्तु यह शास्त्रों में वर्णित या अधिकारियों द्वारा निर्दिष्ट नियमित जीवन के समान नहीं होता है। मानव जीवन ही नियमित जीवन है, पशु जीवन नियमित नहीं है। केवल नियमित जीवन में ही दिव्य ज्ञान को समझा जा सकता है।