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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 25: भक्तियोग की महिमा  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  3.25.10 
अथ मे देव सम्मोहमपाक्रष्टुं त्वमर्हसि ।
योऽवग्रहोऽहंममेतीत्येतस्मिन् योजितस्त्वया ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
अथ—अब; मे—मेरा; देव—हे भगवान्; सम्मोहम्—मोह, भ्रम; अपाक्रष्टुम्—भगाने के लिए; त्वम्—तुम; अर्हसि— प्रसन्न होवो; य:—जो; अवग्रह:—भ्रान्त धारणा; अहम्—मैं; मम—मेरा; इति—इस प्रकार; इति—इस प्रकार; एतस्मिन्—इसमें; योजित:—लगाया हुआ; त्वया—तुम्हारे द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रभु, अब प्रसन्न हों और मेरे महा मोह को दूर करें। अहंकार के कारण मैं आपकी माया में व्यस्त रही और मैंने अपने आपको शरीर रूप में तथा फलस्वरूप शारीरिक सम्बन्धों के रूप में पहचाना।
 
तात्पर्य
 अपने शरीर में आत्मबुद्धि का अहंकार तथा इस शरीर के साथ अपनी संग्रह की हुई वस्तुओं को जोडऩे का दावा माया कहलाता है। भगवद्गीता के पंद्रहवें अध्याय में भगवान् कहते हैं, “मैं हर एक के हृदय में आसीन हूँ और सबों की स्मृति तथा विस्मृति मुझी से है।” देवहूति ने कहा कि अपने आपको शरीर मानना तथा शारीरिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति भी भगवान् के निर्देशन में है, तो क्या इसका यह अर्थ हुआ कि भगवान् एक को भक्ति में और दूसरे को इन्द्रियतृप्ति में लगाकर भेदभाव बरतते हैं? यदि ऐसा हो तो भगवान् की ओर से यह असंगति होगी, किन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं। ज्योंही जीव भगवान् के प्रति अपनी वास्तविक स्वाभाविक दासता की स्थिति भूल जाता है और इन्द्रियतृप्ति के माध्यम से भोग करना चाहता है, तो वह माया द्वारा बन्दी बना लिया जाता है। माया द्वारा यह बन्धन शरीर तथा शारीरिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति के साथ झूठी पहचान की चेतना है। ये माया के कार्य हैं और चूँकि माया भी भगवान् की एक एजेन्ट है, अत: परोक्षत: यह भगवान् का कार्य है। भगवान् दयालु हैं। यदि कोई उन्हें भुलाकर इस भौतिक जगत का सुखोपभोग करना चाहता है, तो उसे इसकी पूरी छूट प्रत्यक्ष रूपसे नहीं, अपितु उनकी भौतिक शक्ति (माया) के माध्यम से मिलती है। चूँकि यह भौतिक शक्ति भगवान् की शक्ति होती है, अत: प्रत्यक्ष रूप से विस्मृत करने की सुविधा प्रदान करने वाले भगवान् ही होते हैं। अत: देवहूति ने कहा, “इन्द्रियतृप्ति में मेरी व्यस्तता का कारण आप ही थे। अब मुझे इस बन्धन से मुक्त करें।”

ईश्वर की कृपा से मनुष्य को इस भौतिक जगत का भोग करने की अनुमति प्राप्त है, किन्तु जब वह भौतिक सुख से ऊब कर हताश होता है और जब वह निष्ठापूर्वक भगवान् के चरणों में आत्मसमर्पण कर देता है, तो ईश्वर सदय होने के कारण उसे बन्धन से मुक्त कर देते हैं। अत: भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, “सबसे पहले मेरी शरण में आ जाओ तब तुम्हारा दायित्व मैं उठा लूँगा और मैं तुम्हें समस्त पापकर्मों के फल से मुक्त कर दूँगा।” पापकर्म वे कर्म हैं, जिन्हें हम भगवान् के साथ अपने सम्बन्ध को भुला देने की स्थिति में करते हैं। इस संसार में भौतिक सुख के लिए जिन कर्मों को पवित्र माना जाता है वे भी पापपूर्ण हैं। उदाहरणार्थ, कभी-कभी मनुष्य किसी गरजमंद व्यक्ति को इस दृष्टि से दान देता है कि बदले में उसे चारगुना अधिक धन मिलेगा। लाभ के उद्देश्य से दिया गया दान रजोगुणी दान है। यहाँ जो भी कर्म किया जाता है, वह भौतिक प्रकृति के गुणों के अधीन रहकर किया जाता है, फलत: भगवान् की सेवा के अतिरिक्त सारे कार्य पापपूर्ण हैं। पापकर्मों के कारण हम भौतिक आसक्ति द्वारा मोहित होते रहते हैं “मैं यह शरीर हूँ।” मैं शरीर को स्व तथा शारीरिक सम्पत्ति को ‘मेरा’ सोचता हूँ। देवहूति ने मिथ्या पहचान तथा मिथ्या सम्पत्ति के बन्धन से मुक्त करने के लिए भगवान् कपिल से प्रार्थना की।

 
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