श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 25: भक्तियोग की महिमा  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  3.25.13 
श्रीभगवानुवाच
योग आध्यात्मिक: पुंसां मतो नि:श्रेयसाय मे ।
अत्यन्तोपरतिर्यत्र दु:खस्य च सुखस्य च ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच—भगवान् ने कहा; योग:—योग प्रणाली; आध्यात्मिक:—आत्मा से सम्बन्धित; पुंसाम्—जीवों का; मत:—स्वीकृत है; नि:श्रेयसाय—चरम लाभ हेतु; मे—मेरे द्वारा; अत्यन्त—पूर्ण; उपरति:—विरक्ति; यत्र—जहाँ; दु:खस्य—दुख से; च—तथा; सुखस्य—सुख से; च—तथा ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् ने उत्तर दिया : जो योग पद्धति भगवान् तथा व्यक्तिगत जीवात्मा को जोड़ती है, जो जीवात्मा के चरम लाभ के लिए है और जो भौतिक जगत में समस्त सुखों तथा दुखों से विरक्ति उत्पन्न करती है, वही सर्वोच्च योग पद्धति है।
 
तात्पर्य
 इस भौतिक जगत में व्यक्ति कुछ-न-कुछ सुख प्राप्त करने का प्रयास करता है, किन्तु जैसे ही हमें थोड़ा सुख-लाभ होता है कि भौतिक दुख भी पड़ता है। इस संसार में किसी को एकान्तिक सुख प्राप्त नहीं हो सकता। किसी भी प्रकार का सुख दुख से कलुषित हो जाता है। उदाहरणार्थ, यदि हम दूध पीना चाहें तो हमें गाय पालना होगा और उसे दूध देने लायक बनाए रखना होगा। दूध पीना तो अच्छा है। और आनन्द भी है, किन्तु दूध पीने के लिए मनुष्य को इतनी सारी झंझटें उठानी पड़ती हैं। जैसाकि भगवान् ने यहाँ पर कहा है योग पद्धति समस्त सुख तथा दुख को समाप्त करने के लिए है। जैसी कि भगवद्गीता में कृष्ण ने शिक्षा दी है, सर्वोत्तम योग भक्तियोग है। गीता में यह भी कहा गया है कि मनुष्य को सहिष्णु बनना चाहिए और भौतिक सुख या दुख से विचलित नहीं होना चाहिए। निस्सन्देह मनुष्य यह कह सकता है कि वह सुख से विचलित नहीं होता, किन्तु उसे यह पता नहीं कि तथाकथित सुख भोगने के बाद दुख आएगा। यही भौतिक जगत का नियम है। भगवान् कपिल कहते हैं कि योग पद्धति आत्मा का विज्ञान है। मनुष्य योग का अभ्यास आध्यात्मिक पद की पूर्णता प्राप्त करने के लिए करता है। इसमें भौतिक सुख या दुख का प्रश्न नहीं उठता। यह दिव्य होता है। अन्तत: भगवान् कपिल बताएँगे कि यह किस तरह दिव्य है, किन्तु यहाँ पर प्रारम्भिक प्रस्तावना दी गई है।
 
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