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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 25: भक्तियोग की महिमा  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  3.25.22 
मय्यनन्येन भावेन भक्तिं कुर्वन्ति ये द‍ृढाम् ।
मत्कृते त्यक्तकर्माणस्त्यक्तस्वजनबान्धवा: ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
मयि—मेरे प्रति; अनन्येन भावेन—अनन्य भाव से, अविचलित मन से; भक्तिम्—भक्ति; कुर्वन्ति—करते हैं; ये—जो; दृढाम्—कट्टर, दृढ़; मत्-कृते—मेरे लिए; त्यक्त—त्यागे हुए; कर्माण:—कर्म; त्यक्त—त्यागे हुए; स्व-जन—सम्बन्धी जन; बान्धवा:—परिचितों, बन्धुगणों को ।.
 
अनुवाद
 
 ऐसा साधु अविचलित भाव से भगवान् की कट्टर भक्ति करता है। भगवान् के लिए वह संसार के अन्य समस्त सम्बन्धों यथा पारिवारिक सम्बन्ध तथा मैत्री का परित्याग कर देता है।
 
तात्पर्य
 संन्यासी को साधु भी कहा जाता है, क्योंकि वह अपना घर, अपनी सुख सुविधाएँ, अपने मित्र, अपने सम्बन्धी तथा मित्रों एवं परिवार के प्रति अपने कर्तव्य—सब कुछ का त्याग कर देता है। वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के लिए सब कुछ त्याग देता है। संन्यासी सामान्यतया वैरागी जीवन बिताता है किन्तु उसकी विरक्ति तभी सफल होगी जब वह अपनी सारी शक्ति अत्यन्त संयम के साथ भगवान् की सेवा में लगा दे। अत: यहाँ पर कहा गया है— भक्तिं कुर्वन्ति ये दृढाम्—जो व्यक्ति गम्भीरतापूर्वक भगवान् की सेवा में लगा रहता है और संन्यास आश्रम में रहता है, वह साधु है। साधु वह है, जिसने एकमात्र भगवान् की सेवा के लिए समाज, परिवार तथा सांसारिक मानवतावाद को तिलांजलि दे दी हो। मनुष्य जैसे ही इस संसार में जन्म लेता है, उसे जनता के प्रति, देवों के प्रति, ऋषियों के प्रति, अपने माता-पिता के प्रति, पूर्वजों तथा अन्य लोगों के प्रति अनेक प्रकार की जिम्मेदारियाँ घेर लेती हैं। जब वह परमेश्वर के निमित्त इन समस्त जिम्मेदारियों को त्याग देता है, तो उसे ऐसे परित्याग के लिए दण्ड नहीं मिलता है, किन्तु यदि इन्द्रियतृप्ति के लिए कोई व्यक्ति ऐसे कर्तव्यों का परित्याग करता है, तो प्रकृति के नियमों द्वारा उसे दण्डित किया जाता है।
 
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